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________________ स्वयंभपूर्व अपभ्रंश-कविता ___ डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन अब यह विवाद से परे है कि स्वयंभूच्छन्द ‘पउमचरिउ' और 'रिटणेमिचरिउ' के रचयिता स्वयंभू हैं और वह एक हैं। स्व० छं० में छंदों के जो उदाहरण दिये गये हैं, उनमें कुछ तो उनके रचयिताओं के नाम के साथ उद्धृत हैं, और कुछ अज्ञातनाम रचनाएँ उद्धृत हैं। इनमें से अधिकांश रचनाएं स्वयंभू की हैं, उन्होंने विनयवश उनके साथ अपना नाम नहीं जोड़ा। उदाहरण के लिए स्व० ई० में छत्ता रूप में प्रयुक्त छड्डणिआ का यह उदाहरण स्वयंभू ने अपनी रचना पउमचरिउ से लिया है "खरदसण गिलेवि चन्दणहिहे तित्तिण जाइय । ___णं खयकाल छुइ रावणहो पडीवी धाइय ॥" १८४४० प०च. खरदूषण को निगलकर भी चन्द्रनखा को तृप्ति नहीं हुई मानो वह क्षयकाल की भूख की तरह उल्टी रावण के पास दौड़ी।। स्व० ई० में उद्धृत यह छंद पउमचरिउ का है "अक्खइ गउतमसामि तिहअणे लद्धपसंसहों। सुण सेणिअ उप्पत्ति रक्खसवाणरवंसहो।" प० च० ११५ गौतमस्वामी कहते हैं—हे श्वैणिक, त्रिभुवन में प्रशंसा प्राप्त करने वाले राक्षस और वानर वंशों की उत्पत्ति सुनो। एक उदाहरण और । स्व० छं० ९।१ में उद्धृत यह छन्द प० च० की तीसरी संधि का घत्ता है तिहुअण-गुरु तं गयउरु मेल्लेवि खीण कसाइउ । गय-संतउ विहरंतउ पुरिम तालु संपाइउ ।। इसी प्रकार इय चिन्धइ जसु सिद्धई परसमाणु जसु अप्पउ। गह चक्कहो तइ लोकहों सो जे पेउ परमप्पउ ॥ ११॥३ 'रिटुणेमिचरिउ' अभी अप्रकाशित है, जो इस लेखक के संपादनाधीन है। उसका अनुमान है कि रि० णे० च० से भी रचनाएँ स्वयंभू छंद में उद्धृत की गई हैं। । दूसरे उद्धत कवियों में से चतुमुंख और गोविन्द के उद्धरण सबसे अधिक हैं, सम्भवतः ये कवि स्वयंभू से पूर्व के हैं और जैसा कि उनकी रचनाओं से स्पष्ट है कि ये प्रबन्ध-कवि हैं । चतुर्मुख को स्वयंभू ने छड्डुणिया दुवई और ध्रुवकों से विजड़ित 'पद्धड़िया' का निर्माता बताया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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