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________________ 12 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 जो संयमी ज्ञातपुत्र ( भगवान् महावीर ) के प्रवचनों में रत हैं वे विड़ और उद्भेद्य आदि नमक तथा तेल, घी, गुड़ आदि किसी वस्तु के संग्रह करने का मन में संकल्प तक नहीं करते' । परिग्रह विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण आदि वस्तुएँ रखते हैं, वे सब एकमात्र संयम की रक्षा के लिये ही रखते हैं— काम में लाते हैं (इनके रखने में किसी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं है २ ) । ज्ञानी पुरुष, संयम - साधक उपकरणों के लेने और रखने में कहीं भी किसी मी प्रकार का ममत्व नहीं करते और तो क्या, अपने शरीर तक पर मी ममता नहीं रखते । संग्रह करना, यह अंदर रहने वाले लोभ की झलक है । अतएव मैं मानता हूँ कि जो साधु मर्यादाविरुद्ध कुछ भी संग्रह करना चाहता है, वह गृहस्थ है— साधु नहीं है * । अपरिग्रह की महिमा के प्रतिपादन में पतञ्जलि मुनि का कथन है कि उपरिग्रह की स्थिति हो जाने पर पूर्वजन्म कैसे हुए थे, इस बात का सम्यक् ज्ञान हो जाता है, अर्थात् जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता है, तब उसे अपने पूर्वजन्मों की और वर्तमान जन्म की सम्पूर्ण बातें ज्ञात हो जाती हैं, अर्थात् मैं पहले किस योनि में पैदा हुआ था, मैंने उस समय क्या-क्या काम किये, किस प्रकार रहा- ये सब स्मरण हो जाते हैं तथा इस जन्म की भी बीती हुई सब बातें स्मरण हो जाती हैं । यह ज्ञान भी संसार में वैराग्य उत्पन्न करने वाला और जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए योगसाधन में प्रवृत्त करने वाला है" । उपर्युक्त यम को सार्वभौम महाव्रत कहा गया है, अतः यह महाव्रत किसी विशिष्ट जाति, देश और कालविशेष से प्रतिबन्धित नहीं है । इसका साधन, हिन्दू, ईसाई और मुस्लिम आदि समस्त जाति के पुरुष कर सकते हैं; केवल भारत में ही नहीं, सम्पूर्ण संसार में इस (यम) की साधना की जा सकती है और काल या समय का भी इसमें प्रतिबन्ध नहींदिन, रात, मास ऋतु सदा-सर्वदा इसकी साधना करने से सफलता मिलती है । इसकी साधना से प्रेय अर्थात् ऐहलौकिक ऐश्वर्य और श्रेयस अर्थात् पारलोकिक मोक्ष- निर्वाण आदि उपलब्धियाँ सुगमता से सिद्ध होती हैं । केवल सिद्धान्त नहीं, व्यावहारिकता से इसका पालन करना कल्याणप्रद है । १. बिड़मुब्भे इमं लोणं, तेल्लं, सप्पि च फाणियं । न ते सन्निहिमिच्छन्ति नायपुत्र वओरया ॥ दश० अ० ६ गा० १८ २. यं पिवत्थं च पायं वा कम्बलं पायपुंछणं । तंपि संजमलज्जट्ठा धारेन्ति परिहरन्ति य ॥ - वही, अ० ६ गा० २० ३. सव्वथुवहिणा बुद्धा, संख खण परिग्गहे । अवि अप्पणी विदेहम्मि, नाऽऽयरन्ति ममा इयं ॥ (वही, अ० ६ गा० २२) ४. लोहस्सेस अणुफ्फासो, मन्ये अन्नयरा मवि । जे सिया सन्निहीकामे गिही, पव्वए न से || (वही, अ० ६ गा० १९ ) ५. अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध: | ( पा० यो० २।३९ ) ६. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमाः महाव्रतम् । (वही, २०३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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