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________________ यमविज्ञान और जैनदर्शन 11 जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती करने वाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं हितकर नहीं होती' । ब्रह्मचर्यरत भिक्षु को शृङ्गार के कोई भी शृङ्गारी काम नहीं करना चाहिये । जैसा बहुत अधिक ईन्धन वाले उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन होती। अधिक भोजन किसी को भी लिये शरीर की शोभा और सजावट का - गन्ध, रस और स्पर्श – इन पाँच प्रकार के कामगुणों स्थिर चित्त, भिक्षु, दुर्जय काम-मोगों को सदा-सर्वदा के ब्रह्मचयं में तनिक भी क्षति पहुँचाने की सम्भावना हो, ब्रह्मचारी भिक्षु को शब्द, रूप, को सदा के लिये छोड़ देना चाहिये । लिये छोड़ दे । इतना ही नहीं जिनसे उन सब शंका-स्थानों का भी उसे परित्याग कर देना चाहिये । देवलोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःख का मूल एकमात्र काम भोगों की वासना ही है । जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है । I जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है उसे देव, दानव, गन्धवं, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं । यह ब्रह्मचर्यं व्रत ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है । इसके द्वारा पूर्व काल में कितने ही जीव सिद्ध हो गये हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में होंगे ४ । ब्रह्मचर्यं की स्थिति के दृढ़ हो जाने पर सामर्थ्य का लाभ होता है । अर्थात् जब साधक में ब्रह्मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति हो जाती है, तब उसके मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है; साधारण मनुष्य किसी काम में भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते " । अपरिह = अपरिग्रह यम का पञ्चम उपाङ्ग है अपरिग्रह अर्थात् किसी वस्तु को भविष्य उपयोग के लिए . संग्रह नहीं करना । इसके सम्बन्ध में प्राणिमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र ( भगवान् महावीर ) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों को परिग्गह (परिग्रह) नहीं बतलाया है । वास्तविक परिग्रह तो उन्होंने किसी भी पदार्थ पर मूर्च्छा का - आसक्ति का रखना बतलाया है । पूर्ण संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना होता है । समस्त पाप कर्मों का परित्याग करके सर्वथा निर्ममत्व होना तो और मी कठिन बात है । Jain Education International १. वही, अ० ३२ गा० ११ । ३. वही, अ० ३२ गाथा १९ । ५. ब्रह्मचर्यं प्रतिष्ठायां वीर्यलाभ: । (पा० यो० २।३९) ६. न सो परिहो वृत्तो, नायपुत्रेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो इह वृत्तं महेसिणा ।। - दश० अ० ६ गा० २१ ७. धण-धन्न - पेसवग्गेसु, परिग्गह विवज्जणं । सव्वारंभ परिच्चाओ निम्ममत्तं सुदक्करं ॥ उत्तरा० अ० १९ गा० ३० २ . वही, अ० १६ गा० ९–१०, १४ । ४. वही, अ० १६ गा० १६-१७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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