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10 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
हुए भी दुःसेव्य प्रमादस्वरूप और भयङ्कर अब्रह्मचर्य का कमी सेवन नहीं करते । यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोषों का स्थान है, इसलिये निग्रंथ मुनि मैथुन-संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं । आत्मशोधक मनुष्य के लिये शरीर का श्रृंगार, स्त्रियों का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन-सब तालपुट विष के समान भयङ्कर है।
ब्रह्मचर्य में अनुरक्त भिक्षु को मन में वैषयिक आनन्द पैदा करने वाली तथा काम भोग की आसक्ति बढ़ाने वाली स्त्री-कथा को छोड़ देना चाहिये । ब्रह्मचर्यरत भिक्षु को स्त्रियों के साथ बातचीत करना और उनसे बार-बार परिचय प्राप्त करना सदा के लिए छोड़ देना चाहिये । ब्रह्मचर्यरत भिक्षु को न तो स्त्रियों के अङ्ग-प्रत्यंगों की सुन्दर आकृति की ओर देखना चाहिये और न आँखों में विकार पैदा करने वाले हाव-भावों और स्नेहभरे मीठे वचनों की ही ओर । ब्रह्मचर्यरत भिक्षु को स्त्रियों का कूजन, रोदन, गीत, हास्य, सीत्कार और करुणक्रन्दन जिनके सुनने पर विकार पैदा होते हैं—सुनना छोड़ देना चाहिये । ब्रह्मचर्य भिक्षु स्त्रियों के पूर्वानुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, दर्प, सहसावित्रासन आदि कार्यों को कभी भी स्मरण न करे। ब्रह्मचर्यरत भिक्षु को शीघ्र ही वासनावर्धक पुष्टिकारक भोजन-पान सदा के लिये परित्याग कर देना चाहिये । ब्रह्मचर्यरत स्थिरचित्त भिक्षु को संयम यात्रा के निर्वाह के लिये सर्वदा धर्मानुकूल विधि से प्राप्ठ परिमित भोजन ही करना चाहिये। कैसी ही भूख क्यों न लगी हो, लालचवश अधिक मात्रा में कभी भोजन नहीं करना चाहिये।
काम-मोगों का रस लेने वाले के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्मचर्य महाबत का धारण करना बड़ा कठिन कार्य है ।
श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर वचन, संकेत-चेष्टा, हाव-भाव और कटाक्ष आदि का तनिक भी विचार मन में न लाये और न इन्हें देखने का प्रयत्न करे । स्त्रियों को रागपूर्वक देखना, उनकी अभिलाषा करना, उनका चिन्तन करना, उनका कीर्तन करना आदि कार्य ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि नहीं करने चाहिये । ब्रह्मचर्य-व्रत में सदा रत रहने की इच्छा करने वाले पुरुषों के लिये यह नियम अत्यन्त हितकर है और उत्तम ध्यान करने में सहायक है। १. अबंभचरिय घोरं, पभायं दुरहिट्ठियं । नाऽऽयरन्ति मुणीलोए, भेयाययणवज्जिणो ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोस समुस्सयं । तम्हा मेहुण संसग्गं, नग्गं था वञ्जयन्ति णं ॥ विभृसा इत्थि संसग्गो, यणीयं रस भोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥
(दश० अ० ६ गा० १६, ६ गा० ११ और ८ गा० ५७) २. उत्तरा० अ० १६ गाथा २-८ ३. उत्तरा० अ० १९ गा० २८ । ४. वही, अ० ३२ गा० १४-१५ ।
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