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________________ यमविज्ञान और जैनदर्शन "कुरेदने की सींक भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो, उसकी आज्ञा लिये बिना पूर्ण संयमी साधक न तो स्वयं ग्रहण करते हैं और न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते हैं और न ग्रहणकर्ताओं का अनुमोदन करते हैं। ऊँची-नीची और तिरछी दिशा में जहाँ कहीं भी जो त्रस और स्थावर प्राणी हों, उन्हें संयम से रहकर अपने हाथों से, पैरों से किसी भी अंग से पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिये। दूसरों की बिना दी हुई वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करना चाहिये । जो मनुष्य अपने सुख के लिये त्रस या स्थावर प्राणियों की क्रूरतापूर्वक हिंसा करता है उन्हें अनेक तरह से कष्ट पहुँचाता है, जो दूसरों की चोरी करता है, जो आदरणीय व्रतों का कुछ भी पालन नहीं करता, वह भयंकर क्लेश उठाता है। दाँत कुरेदने की सींक आदि तुच्छ वस्तुएँ भी बिना दिये चोरी से न लेना, निर्दोष एवं एषणीय भोजन पान भी दाता के यहाँ से दिया हुआ लेना, यह बड़ी दुष्कर बात है। अस्तेय के फल के प्रसंग में पतञ्जलि मुनि का कथन है-'चोरी के अभाव को दृढ़ स्थिति हो जाने पर सब प्रकार के रत्न उसके समक्ष प्रकट हो जाते है । अर्थात् जब साधक में चोरी का अभाव पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, तब पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गुप्त स्थान में पड़े हुए समस्त रत्न उसके सामने प्रकट हो जाते हैं अर्थात् सर्वत्र स्थित सम्पत्ति का ज्ञान उस साधक को अवश्य हो जाता है। बंभचरिय (ब्रह्मचर्य) ___ बंभचरिय ब्रह्मचर्य 'यम' का चौथा उपांग है । इसके सम्बन्ध में प्रचुर मात्रा में वर्णन, जैन वाङ्मय उपस्थित करता है जो मुनि संयम-घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में रहते १. चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा यदि वा बहुं । दंत सोहणमित्तंपि, उग्गहं से अजाइया । तं अप्पणा न गिण्हन्ति, नोवि गिण्हवए परं । नं वागिण्हमाणंपि नाणुजानन्ति संजया ॥ (दश० अ० ६ गा० १४-१५) २. उड्ढं अहेय तिरियं दिसासु, तसाय जे थावर जे य पाणा । इत्थेहि पाए हिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा ॥ (सूत्र० श्रु० १ अ० १० गा० २) ३. तिव्वं तपे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसुहं पडुच्च । जे लसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खई - सेय वियस्स किंचि ॥ (वही, श्रु० अ० ५ उ० १ गा० ४) ४. दन्त सोहणभाइस्स, अदत्तस्स विवज्जणं । ___अणवज्जेसणि ज्जस्स गिण्हणा अविदुक्करं ।। (उत्तरा० अ० १९ गा० २८) ५. अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् । (पा० यो० २१३७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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