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________________ 8 VAÍSHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 बुद्धिमान् साधक केवल हितकारी मधुर भाषा बोले' । विचारवान् मुनि को वचन-शुद्धि का भलीभाँति ज्ञान प्राप्त करके दूषित वाणी सदा के लिए छोड़ देनी चाहिये और खूब सोच-विचार कर बहुत परिमित और निर्दोष वचन बोलना चाहिये। इस तरह बोलने से सत्पुरुषों में महान् प्रशंसा प्राप्त होती है। काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है तथापि ऐसा नहीं कहना चाहिये (क्योंकि इनसे उन व्यक्तियों को दुःख पहुँचता है) मनु के अनुसार अप्रिय सत्य बोलना निषिद्ध है “न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्" । जो मनुष्य भूल से मूलतः असत्य, किन्तु ऊपर से सत्य मालूम होने वाली भाषा बोल उठता है वह भी पाप से अछूता नहीं रहता, तब भला जो जान-बूझ कर असत्य बोलता है, उसके पाप का तो कहना ही क्या। जो भाषा कठोर हो, दूसरों को मारी दुःख पहुँचाने वाली होवह सत्य ही क्यों न हो-नहीं बोलनी चाहिये । क्योंकि उससे पाप का आस्रव होता है। पातञ्जल योगानुसार सत्य की दृढ़ स्थिति हो जाने पर योगी म) क्रियाफल-आश्रयमाव आ जाता है । अर्थात्, जब योगी सत्य का पालन करने में पूर्णतया परिपक्व हो जाता है, तब उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, उस समय वह योगी कर्तव्यपालनरूप-क्रियाओं के फल का आश्रय बन जाता है। जो कम किसी ने नहीं किया है, उसका भी फल उसे प्रदान कर देने की शक्ति उस योगी में आ जाती है, अर्थात् जिसको जो वरदान, शाप या आशीर्वाद देता है, वह सत्य हो जाता है। वह जल को अग्नि में और अग्नि को जल में परिणत कर सकता है । ऐसे योगी के लिये कोई भी कार्याकार्य असम्भव नहीं है। अतेण (अस्तेय) यम के तृतीय उपाङ्ग अतेण अर्थात् अस्तेय (चोरी न करना) के लिये भी जैन संस्कृति में प्रमुख स्थान है। प्रतिपादन है कि पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, दाँत १. भासाए दो से य गुणे य जाणिया, तोसे च दुढे परिवज्जये सया । छसु संजए सामणिए सया जए, वएज्ज बुद्ध हियमाणु लोमियं ।। (वही, अ० ७ गा० ५६) २. सवक्व सुद्धि समुपेहिया मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया । मियं अदुटुं अणुवीह मासए, सयाणमज्झे लहई पसं सणे ।। (वही, अ० ७ गा० ५५) ३. तहेव काणं काणेत्ति पंडगं पंडगेत्ति वा । वाहियं वा विरोगित्ति तेणं चोरेत्ति न वए ॥ (वही, अ० ७ गा० १२) ४. वितहं वितहामुत्ति, जंगिरं मासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं किं पुण जो मुसं वए ॥ (वही, अ० ७ गा० ५) ५. तहेव फरुषा भासा, गुरु भूओ वेधाइणी । सच्चा वि सान वत्तव्वा, जसो पावस्स आगमो॥ (वही, अ० ७ गा० ११) ६. सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् । (पा० यो० २।३६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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