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सच्च
यमविज्ञान और जैनदर्शन
यम के द्वितीय उपाङ्ग सच्च (सत्य) के महत्व में जैनवाङ्मय का प्रतिपादन भी उदात्तात्मक है । यथा— सदा अप्रमादी और सावधान रहकर, असत्य को त्याग कर, हितकारी सत्य वचन ही बोलना चाहिये । इस तरह सत्य बोलना बड़ा कठिन होता है । किसी के पूछने पर भी अपने लिये दूसरों के लिये अथवा दोनों में से किसी के लिये भी निरर्थक या मर्मभेदक वचन नहीं बोलना चाहिये । श्रेष्ठ धीर पुरुष स्वयं जानकर अथवा गुरुजनों से सुनकर प्रजा का हित करने वाले धर्म का उपदेश करे । जो आचरण निन्द्य हों, निदान वाले हों उनका कभी सेवन न करे । अपने स्वार्थ के लिये अथवा दूसरों के लिये क्रोध से अथवा भय से – किसी भी प्रसङ्ग पर दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला असत्य वचन न तो स्वयं बोलना और न तो दूसरों से बोलवाना चाहिये । असत्य वचन सत्पुरुषों द्वारा निन्दित माना गया है । श्रेष्ठ साधु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरों को दुःख पहुँचाने वाली वाणी न बोले । श्रेष्ठ मानव इसी तरह क्रोध, लोभ, भय और हास्य से भी पापकारी वाणी न बोले । हँसते हुए भी पाप वचन नहीं बोलना चाहिये" । आत्मार्थी साधक को दृष्ट (सत्य) परिमित, असन्दिग्ध परिपूर्ण, स्पष्ट अनुभूत, वाचालतारहित और किसी को भी उद्विग्न न करने वाली वाणी बोलना
चाहिये । भाषा के गुण तथा दोषों को भली-भाँति जानकर छोड़ देने वाला, षटुकाय जीवों पर संयत रहने वाला तथा
५. तहेव
१. निच्च
कालsप्पमतेणं मुसावायविवञ्जणं ।
भासियत्वं हियं सच्चं निच्चाउत्तेण दुक्करं ॥ ( उत्तरा० अ० १९ गा० २७) २. न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरटुं न मम्मयं ।
भासेज्ज धम्मं
पयाणं ।
ओगा,
अप्पणट्टा पट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा ॥ ( वही अ० १ गा० २५ ) ३. स यं समेच्च अदुवा वि सोच्चा, ह्रियं जे गरहिया सणियाणप्प न ताणि सेवन्ति सुधीर ४. अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया । हिंसगं न मुयं बूया, नो वि अन्नं वयावए ॥ मुसावाओ या लोगम्मि, सव्व साहूहि गरहिओ ।
धम्मा || (सूत्र० श्रु० १ अ० १३ गा० १९ )
अविस्सा सोय भूयाणं, तम्हा मोसं विवज्जए || (दश० अ० ६ गा० १२-१३)
सावज्जी
गिरा,
जाय
कोह लोह भय हासमाणो वि गिरं
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ओहारिणी
से
न
६. दिट्ठ मियं असंदिद्ध, पडि पुराणं वयं जियं ।
अयं पिरमणुत्विग्गं, मासं
परोवधायिणी |
हासभाणसो,
दूषित भाषा को सदा के लिये साधुत्व - पालन में सदा तत्पर
व एज्जा || (वही, अ० ७ गा० ५४)
ܪ
निसिर अत्तवं ॥ (वही, अ० ८गा० ४९ )
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