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________________ 6 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 ही आत्मा के समान जानकर उनकी छहो जीव - निकायों का सब प्रकार की दुःख से घबराते हैं" - ऐसा जान कर कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । यही अहिंसा का विज्ञान है । सम्यक् बोध को जिसने प्राप्त कर हिंसा से उत्पन्न होने वाले शत्रुतावर्धक एवं महाभयंकर दुःखों को कर्मों से बचाये । संसार में प्रत्येक प्राणी के प्रति — फिर वह शत्रु हो या मित्र - सम भाव रखना तथा जीवनपर्यन्त छोटी-मोटी सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना वास्तव में बहुत दुष्कर है । अहिंसा की दृढ़ स्थिति हो जाने पर उस योगी के निकट सब प्राणी निर्वैर हो जाते हैं। कभी भी हिंसा न करनी चाहिये' । बुद्धिमान् मनुष्य युक्तियों से सम्यक् ज्ञान प्राप्त करे और " समग्र जीव उन्हें दुःख न पहुँचाये रे । ज्ञानी होने का सार यही है इतना ही अहिंसा के सिद्धान्त का ज्ञान यथेष्ट है । लिया, वह बुद्धिमान् मनुष्य जान कर अपने को पाप अहिंसा की महिमा के सम्बन्ध में महर्षि पतञ्जलि का कथन है कि जब योगी का अहिंसाभाव पूर्णतया दृढ़-स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैरभाव से रहित हो जाते हैं । इतिहास ग्रन्थों में जहाँ मुनियों के आश्रमों को शोमा का वर्णन आता है, वहाँ वनचर जीवों में भी स्वाभाविक वैर का अभाव दिखलाया गया है, जो उन ऋषियों के अहिंसामाव की प्रतिष्ठा का द्योतक है। आदि कवि वाल्मीकि ने अगस्त्याश्रम के वर्णन में ऐसा ही चित्रण उपस्थित किया है । यथा - पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने जब से इस दिशा में पदार्पण किया है, तब से यहाँ के निशाचर वैर रहित और शान्त हो गये हैं । वाल्मीकि आश्रम के वर्णन में गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरित मानस के अयोध्याकाण्ड में अहिंसा की महिमा के वर्णन में कहा है कि वहाँ के पशु पक्षी तथा हाथी सिंह आदि हिंसक प्राणी वैर रहित होकर विचरण करते थे । १. सव्वाहि अणु जुत्तीहि मईमं पडिले हिया । सव्वे अक्कन्त दुक्खाय, अओ सव्वे न हिंसया ।। (सूत्र० श्रु० १ अ० ११ गा० ९) २. एवं खु नाणिमों सारं, जं न हिसई किंचण । अहिंसा समयं चैव एभावन्तं वियोणिया ॥ ( बही श्रु० १ अ० ११ गा० १० ) ३. संब्रञ्झमाणे उ नरे मई मं, पावाउ अप्पाणं निवदृएञ्जा | हिसप्प समाई द्रहाई मत्ता, वेश नुबन्धीणि महब्भयाणि । ( वही अ० १० गा० २१ ) ४. समया सव्व भूएसु, यत्रु-मित्रेषु वा जगे । ५. पणा इवाय विरई, जावज्जीवाय दुक्करं ॥ ( उत्तरा० अ० १९ गा० २५ ) ६. अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ ( पा० यो० द० २।३५ ) ७. यदाप्रभृति चाक्रान्ता दिगियं पुण्यकर्मणा । तदाप्रभृति निर्वैराः प्रशान्ता रजनीचराः ॥ ( रामायण अरण्य का० १११८३) ८. खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं । बिरहितबैर मुदित मन चरहीं ॥ करि केहरि कपि कोल कुरंगा । बिगतबैर बिचरहिं सब संगा || ( १२३|४; १३७|१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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