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________________ यमविज्ञान और जैनदर्शन करने पर 'अहिंसा' शब्द सिद्ध होता है। अहिंसा का उच्चतम स्वरूप प्राणिमात्र में अपनी आत्मा को व्यापक रूप में देखना है। जो (साधक) सम्पूर्ण भूतों को (अपनी) आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी अपनी आत्मा को ही देखता है, वह इस (सर्वात्मदर्शन) के कारण ही किसी से घृणा नहीं करता तथा किसी प्राणी को किसी प्रकार कष्ट नहीं देता और न स्वेतर से कष्ट दिलाने की चेष्टा करता है । जैनों के साम्प्रदायिक धर्म में अहिंसा के लिये उदात्त भावना है तथा व्यावहारिक उपयोगिता है। भगवान् महाबीर ने अठारह धर्मस्थानों में सर्वप्रथम स्थान अहिंसा का बतलाया है। समस्त जीवों-प्राणियों के साथ संयम से व्यवहार रखना अहिंसा है। वह (अहिंसा) सब प्रकार के सुखों को देनेवाली मानी गयी है । अतः यह व्रत सर्वश्रेष्ठ है—इस व्रत के समान दूसरा कोई भी व्रत नहीं है । संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन सबको जान और अनजान में न तो स्वयं मारना चाहिये और न दूसरों से मरवाना चाहिये, क्योंकि यह तो मनोवैज्ञानिक सत्य है कि पाप-पुण्य या धर्माधर्म के उपदेष्टा को उस कार्य के लिये फल भोगना स्वाभाविक और न्यायपूर्ण है। पौराणिक प्रतिपादन भी है कि व्यक्ति जिसके उपदेश से पुण्य या पाप करता है, वह (उपदेश कर्ता) अपने पुण्य वा पापरूप उपदेश का भागी बनता है । जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, वह संसार में अपने लिये शत्रुता को बढ़ाता है, क्योंकि हिंसा व्यापार के लिये प्रेरणा अथवा अनुमोदन में भी तो स्पष्ट नहीं, किन्तु अस्पष्ट कर्तृत्व का व्यापार तो है ही, इसलिये अनुमोदन करने का भी आदेश वर्जित है। संसार में रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों पर मन से, वचन से और शरीर से किसी भी तरह दण्ड का प्रयोग नहीं करना चाहिये । सभी जीव, जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिये निर्ग्रन्थ (जैनमुनि) घोर प्राणिबध का सर्वथा त्याग करते हैं। भय और वैरनिवृत्त साधक को, जीवन के प्रति मोह-ममता रखने वाले समस्त प्राणियों को सर्वत्र अपनी १. यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । ___ सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ (इशोपनिषद्. ६) २. तन्थिमं पढमं ठाणं महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्व भूतेसु संजमा ।। जावन्ति लोए पाणा, तसा अदुवा थावरा । ते जाणमजाणं वा न हणे नो वि धायए ॥ (दशवैकारिक सूत्र, अ० ६ गा ९-१०)। ३. सयं, तिवायए पाणे, अदुवऽन्नेहिं घायए। हणन्तं वाऽणु जाणाइ, वेरं वड्डई अप्पणो ॥ (सूत्रकृताङ्ग श्रु० १ अ० १ उ० १ गा०३) ४. जगनिस्सि एहिं भूएहिं, तसनामेंहिं थावरे हिं च । नो तेसिभार भे दंड, मणसा वयसा कायसा चेव ।। (उत्तराध्ययनसूत्र अ० ८० गा०-१०) ५. सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविउं न मरिजि उं । तम्हा पाणि वहं घोरं निग्गंथा वज्जयन्तिणं ॥ (दश० अ० ६ गा० ११) ६. अञ्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स, पाणे पिथाय ए। न हणे पाणिणो पाणे, भयवेश ओ उचरए ॥ (उत्तरा० अ० ६ गा० ७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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