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यमविज्ञान और जैनदर्शन
डॉ० सर्वानन्द पाठक, डी० लिट० 'नक्' प्रत्ययान्त 'जी' जये धातु से निष्पन्न 'जिन' शब्द का अर्थ होता है-विजयी, पुरुषोत्तम, देवता और तीर्थङ्कर आदि । पुनः 'जिन' शब्द में तद्धितीय 'अण्' प्रत्यय के योग से व्युत्पन्न 'जैन' का शब्दार्थ होता है-'जिन' का उपासक या अहंत । यह जिन शब्द चौबीस तीर्थङ्करों में प्रत्येक का वाचक है। यह 'जैन' एक धार्मिक सम्प्रदाय के रूप में वैदिकेतर सम्प्रदाय में विभक्त हो गया। इस सम्प्रदाय के आदि प्रवर्तक हैं-नाभि के पुत्र 'ऋषम' नामक महात्मा जो हमारे पुराण पुरुष हैं। चौबीस तीर्थङ्करों में आदि हैं, यही ऋषभदेव और अन्तिम हैं—महावीर । चौबीस तीर्थङ्करों का क्रम है--(१) ऋषभदेव, (२) अजित, (३) संभव, (४) अभिनन्दन, (५) सुमति, (६) पद्मप्रभा, (७) सुपारवं, (८) चन्द्रप्रमा, (९) सुविधि या पुष्पदन्त, ' (१०) शीतल, (११) श्रेयांस, (१२) वासुपूज्य, (१३) विमल, (१४) अनन्त, (१५) धर्म, (१६) शान्ति, (१७) कुन्धु, (१८) अर, (१९) मल्लि, (२०) मुव्रत, (२१) नमि, (२२) नेमि, (२३) पार्श्व और (२४) महावीर' । 'जिन' गौतम बुद्ध के भी नामों में से एकतम है । बौद्ध सम्प्रदाय में भी चौबीस बुद्धों का विवरण है ।
महर्षि पतञ्जलि के प्रतिपादित-समाधि, मोक्ष या निर्वाण के साधक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि नामक आठ योगाङ्गों में प्रथम अङ्ग 'यम' है. और 'यम' के भी पाँच उपाङ्ग हैं। यथा-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ।
वैदिक दर्शन के समान ही जैन दर्शन में भी यम के लिये एक महत्त्वपूर्ण स्थान है और वहाँ पाँच यमों को पांच महाव्रत नाम दिया गया है और उनको उस धर्म का आधारशिला माना गया है। बौद्ध धर्म में पाँच यमों को पञ्चशील नाम से अभिहित किया गया है । पञ्चशील में चार तो ये ही हैं और पञ्चम अपरिग्रह के स्थान में मद्यनिषेध को स्वीकृत किया गथा है।
अभिप्रेत होने के कारण [प्रथम] अहिंसा का ही विवेचन उपयोगी है। अहिंसा शब्द हिंसा का विपरीतार्थक है। पाणिनि व्याकरण के रुधादि और चुरादिगणीय 'अ' और 'टाप्' प्रत्ययान्त 'हिसि' धातु से निष्पन्न हिंसा का शब्दार्थ होता है-किसी प्राणी का प्राणवियोगानुकूल व्यापार (प्राणवियोगानुकूलव्यापारो हिंसा) । पुनः हिंसा शध्द में नञ् तत्पुरुष समास
१. पद्मानन्द महाकाव्य (तीर्थकर, श्लो० ६७-७६) २. द्र०-निबन्धक का "विष्णुराण" का भारत", पृ० २२० ३. पातञ्जल योग दर्शन, २।२९ ४. वही, २०३०
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