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________________ 90 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 सदैव साक्षात् अनुभव होना चाहिए क्योंकि उसके लिए समीप दूर, प्राप्त अप्राप्त, सामर्थ्य असामर्थ्य, इच्छा - अनिच्छा आदि का कोई व्यवधान नहीं है। यदि ऐसा है तो सर्वज्ञ की प्राप्यकारी इन्द्रियाँ और अप्राप्यकारी इन्द्रियाँ समान हो जाएंगी । तब उसके शरीर से अग्नि का स्पर्श हो या न हो, कोई अन्तर नहीं पड़ेगा; उसकी जीभ पर विष रखा जाय अथवा नहीं, कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होगी; भयंकर दुर्गन्ध उसकी नाक के पास हो अथवा कोसों दूर, कोई भेद दृष्टिगोचर नहीं होगा, नगाड़े उसके कान के पास बजाये जायं अथवा दूर, उसे उतना ही सुनाई देगा । दूसरे शब्दों में, उसकी समस्त इन्द्रियाँ एक प्रकार से संज्ञाविहीन हो जाएंगी । ऐसी स्थिति में उसे सुख-दुःख का अनुभव (जैन कर्मसिद्धान्त सर्वज्ञ में वेदनीय कर्म का अस्तित्व मानता है) कैसे होगा, यह समझ में नहीं आता । सर्वज्ञ का अर्थ यदि तत्त्वज्ञ माना जाए तो अनेक असंगतियां दूर हो सकती हैं । तत्वज्ञ अर्थात् विश्व के मूलभूल तत्त्वों को साक्षात् जाननेवालाप्रत्यक्ष अनुभव करने वाला । जो तत्त्व को साक्षात् जान लेता है वह सब कुछ जान लेता है । तत्त्वज्ञान हो जाने के वाद और जानने योग्य रहता ही क्या है ? जिसे सम्यक् तत्त्वज्ञान हो जाता है और वह भी प्रत्यक्षतः उसका आचार स्वतः सम्यक् हो जाता है । नैश्चयिक सम्यक् ज्ञानाचारसम्पन्न व्यक्ति ही तत्त्वज्ञ है और वही एक प्रकार से सर्वज्ञ कहा जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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