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________________ आचार्य कुन्दकुन्द और अद्वैतवाद डा० देवनारायण शर्मा, यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द अपने दार्शनिक ग्रन्थों में प्रद्वैत वेदान्तियों की तरह अद्वैत का स्पष्ट प्रतिपादन तो नहीं करते, किन्तु उनकी दार्शनिक मान्यताओं के विवेचन से यह मत स्थिर होता है कि वाचक उमास्वाति से भी प्राचीन उपनिषदों की अद्वैत विचारधारा के समानान्तर चलनेवाली श्रमण-1 - विचारधारा से प्रभावित हैं। क्योंकि भेदाभेद दार्शनिक परम्परा के होते हुए भी इन्होंने अभेद पर अधिक बल दिया है । द्वैत से अद्वैत की ओर ये अधिक आकृष्ट हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । उदाहरणस्वरूप हम इनकी कुछ मान्यताओं पर विचार करें, जैसे - उपनिषद् का ब्रह्म शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, निराकार और निर्विकार है [गीता २।२३-२५] । ठीक आचार्य कुन्दकुन्द का जीवतत्त्व भी वैसा ही है । वे अपने दार्शनिक ग्रन्थ समयसार आदि में जीवतत्त्व का लक्षण निम्न प्रकार प्रस्तुत करते हैं : अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठ संठाणं ॥ प्रव० शे० ८०, समय० जी० ४९. बल्कि वे तो जीवतत्त्व और परमात्मतत्त्व में कोई मौलिक भेद ही स्वीकार नहीं करते । " जीवो ब्रह्मैव नापर: ' का प्रतिपादन करनेवाले शाङ्कर वेदान्त की एक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करते देखे जाते हैं । वे संसारी जीव और शुद्ध-बुद्धइ-निर्मल स्वभाव वाले मुक्तजीव अर्थात् जीवतत्त्व और परमात्मतत्त्व में निश्चय दृष्टि से भेद नहीं मानते। उनकी दृष्टि में सभी जीवतत्व परमात्मस्वभाव वाले हैं । वस्तुतः इनमें एकत्व है, अभेद है, भेद का कथन तो व्यवहारदृष्टि से किया जाता है : Jain Education International “ असरीरा अविणासा अणिदिया णिम्मलो विसुद्धप्पा | जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी या ॥ एदे सव्वे भावा बवहारणयं उच्च सव्वं सिद्ध सहावा सुद्धणया संसदी इतना ही नहीं आचार्य का यह जीवतत्त्व वेदान्त के ब्रह्म की तरह लोकालोक सर्वत्र व्याप्त है, क्योंकि वह जीव ज्ञानप्रमाण है और वह ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है तथा ज्ञेय तो लोकालोक सभी हैं । इस प्रकार वह ज्ञानरूप मुक्तजीव संसार में सर्वत्र व्याप्त है । भले ही, वह जीव ब्रह्म की तरह एक नहीं, अनेक है : आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिद्वं । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ॥ भणिदाहु | जीवा ॥ For Private & Personal Use Only - प्रव० १,२३. www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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