________________
सर्वज्ञता
89
उतना स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष नहीं होता जितना कि सर्वज्ञ को हो सकता है किन्तु उसका ठीक-ठीक नाप-तौल विना तत्सम्बद्ध साधनों की सहायता के असंदिग्धरूप से होना शक्य प्रतीत नहीं होता। सर्वज्ञ के कहे जाने वाले भूगोल-खगोलसम्बन्धी वचनों को अप्रामाणिकता से भी यही निष्कर्ष निकलता है।
रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द का ज्ञान इन्द्रिय-सापेक्ष है अर्थात् अमुक इन्द्रिय से रूप का ज्ञान होता है, अमुक से रस का, अमुक से गन्ध का इत्यादि । संसार में ऐसा कोई भी प्राणी दृष्टिगोचर नहीं होता जिसे चक्षु आदि इन्द्रियों के अभाव में रूप आदि विषयों का ज्ञान होता हो। मन की प्रवृत्ति भी इन्द्रियगृहीत पदार्थों में ही देखी जाती है। जन्मान्ध व्यक्ति का मन कितना ही बलवान् क्यों न हो, उसका ज्ञान कितना हो महान् एवं विशाल क्यों न हो, वह रूप-रंग की कल्पना कथमपि नहीं कर सकता। क्या सर्वज्ञ इन्द्रियों की उपस्थिति में भी इन्द्रिय सापेक्ष रूप, रस आदि का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा न करते हुए सीधा आत्मा से करता है ? यदि हाँ तो कैसे ? वह संसार के सभी रूपी पदार्थों के रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श का युगपत् साक्षात् ज्ञान करता है अथवा क्रमशः ? क्रमशः होने वाला ज्ञान तो असर्वज्ञता एवं अपूर्णता का द्योतक है अतः वैसा ज्ञान सर्वज्ञ को नहीं हो सकता । युगपत रूप-रस-गन्ध-स्पर्श का ज्ञान होने पर इनमें पारस्परिक भेद-रेखा खींचना कैसे संभव होगा ? किस आधार से रूप को रस से, रस को गन्ध से, गन्ध को स्पर्श से एवं अन्य प्रकार से इन्हें एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकेगा ? केवल आत्मा में रूप रस-गन्ध स्पर्श का अलग-अलग करने की क्षमता नहीं है क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों के अभाव में रूप आदि की कल्पना ही नहीं की जा सकती । आत्मा में ऐसे कोई विभाग नहीं हैं जो इन्द्रियों के विषयों का उसी प्रकार भिन्न-भिन्न गुणों के रूप में ज्ञान कर सकें। रूपी पदार्थों का हमारे ज्ञान (इन्द्रियज्ञान) से सर्वथा भिन्न प्रकार का कोई विशिष्ट ज्ञान सर्वज्ञ को होता हो जिसमें रूपादि की भिन्न-भिन्न गुणों के रूप में प्रतीति न होकर उनका एक समन्वित प्रतिभास होता हो तो भी समस्या हल नहीं होती है क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान में रूपादि की स्पष्टता नहीं होगी। रूप-रस-गन्ध-स्पर्श की स्पष्टता के अभाव में सर्वज्ञ यह कैसे कह सकेगा कि प्रत्येक रूपी पदार्थ में रूपादि चारों गुण रहते हैं अर्थात् पद्गल (रूपी तत्त्व) स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णयुक्त है ? सर्वज्ञ में समस्त रूपी पदार्थों एवं उनके समस्त गुणों का साक्षात् ज्ञान मानने पर एक भयंकर दोष आता है। संसार में जितने भी रस-गन्ध-स्पर्श-शब्द-वर्ण होंगे उन सबका सर्वज्ञ को साक्षात् अनुभव होगा । उस समय उसकी क्या स्थिति होगी, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है । हम यह नहीं कह सकते कि वह जिसे चाहेगा उसका ज्ञान अथवा अनुभव करेगा और अन्य को योंही छोड़ देगा। इस प्रकार की इच्छा का कोई युक्तिसंगत कारण नहीं है। जब समस्त पदार्थ यथार्थ हैं, उनके समस्त गुण यथार्थ हैं, सर्वज्ञ की आत्मा समस्त पावरक कर्मों से मुक्त है तो कोई कारण नहीं कि वह अमुक समय में अमुक पदार्थ अथवा गुण का ज्ञान (अनुभव) तो करे और अमुक का न करे । वास्तव में उसे समस्त वस्तुओं का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org