SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अप्रतिम प्ररेक विद्वान् डॉ० भागचन्द्र जैन भास्कर श्रद्धेय डॉ० हीरालालजी से मेरा परिचय सन् १६६१ के मई माह में हुआ था। उसके बाद तो मैं उनके बहुत निकट आता गया । उनकी अप्रतिम विद्वत्ता और प्रेरण: - शीलता आज सरलता से नहीं मिल सकती । बाबूजी का धवल केशकलाप, यद्यपि वृद्धत्व का सूचक बन गया था पर उनका तेज-स्फुटित हँसता हुआ चेहरा उसे जल्दी से स्त्रीकर नहीं करता । श्रोता मन्त्र-मुग्ध होकर उनको बातें सुनते रहते और घंटों बीतने पर भी उन्हें समय बीतने का आभास नहीं होता था । हमारी नई पीढ़ी के लिए तो वे एक वरदान थे । उनके पास पहुँचते ही पहला प्रश्न यह होता था कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हो ? विद्वान् और विद्यार्थी के लिए वे एक अजस्र प्रेरणा-स्रोत थे । उनको विद्वत्ता और महानता कभी भी श्रोता पर हावी नहीं हो पाती थी । वे निश्चित ही सच्चे मानव और कर्मठ प्रतिभाशाली कुशल विद्वान् तथा शिक्षक थे। इसलिये सभी के लिए वे एक प्रेरक मार्गदर्शक के रूप में रहे हैं । एक ओर जहाँ उन्होंने विद्वानों का निर्माण किया तो दूसरी ओर साहित्यसृजन में भो वे अन्तिम साँस तक लगे रहे। उनके दर्जनों ग्रन्थ और सैकड़ों निबंध इतिहास में सदैव उनकी चिन्तनशीलता तथा मौलिकता को प्रस्तुत करते रहेंगे । वे एक चलते-फिरते कोश थे । संस्कृत, पालि, प्राकृत, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति, भाषाविज्ञान आदि सभी विषय उनके अपने थे । विगत फरवरी के अन्तिम सप्ताह में उनके दर्शन करने गया तो देखा कि सुबह लगभग आठ बजे वे अपनी टेबिल पर बैठे हुए धाराप्रवाह लिखने में व्यस्त हैं। मुझे देखकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और फिर तो घंटों वात करते रहे । वह वाक्य कभी विस्मरण नहीं हो सकता जब उन्होंने कहा था – “ भागचन्द ! अब लगता है मैं पढ़ाने लायक हुआ हूँ, पर दुःख यह है कि जाने की भी तैयारी हो रही है ।" इसमें उनकी जो महानता और विद्वत्ता छिपी थी, वह अनुकरणीय है । आज बाबूजी हमारे बीच नहीं हैं पर उनके सारे गुण हमारे सामने एक मानदण्ड के रूप में स्मृति-पथ पर बने हुए हैं । यदि उनका सही अनुकरण किया जाय तो अनुशासनहीनता जैसी समस्याएँ शिक्षा क्षेत्र में कभी नहीं रहेंगी । बाबूजी के सम्मान में हमने जैन मिलन का एक अंक प्रस्तुत किया था । वस्तुतः अभिनन्दन ग्रन्थ समर्पित करने की भी योजना थी पर वह कार्यान्वित नहीं हो सकी । अब उनकी पुनीत स्मृति में एक सुन्दर अभिनन्दन ग्रन्थ तथा शोध संस्थान, छात्रावास आदि उपयोगी वस्तुओं का प्रकाशन और संस्थापन होना चाहिए। तभी उनके प्रति हमारी वास्तविक श्रद्धांजलि होगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy