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ऋषिकल्प पूज्यगुरु डा० हीरालाल जैन आकस्मिक रूप से बिजली की तरह फैल गयी। तव विद्यापीठ का पूरा छात्र परिवार उनसे, रुक जाने के लिए अनुनय-विनय करने उनके आवास पर पहुंचा। उसमें पंचमवर्ष के एक वयस्क पण्डित छात्र ने प्रथम ही सासह के साथ कहाश्रीमान् ! हम पंचम वर्ष के छात्रों का अब क्या होगा ? अभी पूरा एक वर्ष बाकी है। हम लोगों का बेड़ा भी पार लगा दीजिये, तब जाइये।" डा. जैन साहब उनकी इन भोली बातों पर मुसकराते हुए विनोदकी मुद्रा में बोले-"अच्छा, तुम पहले यह तो बताओ, जब तुम षष्ठ वर्ष से निकलोगे, उस समय कोई पंचम वर्ष में रहेगा या नहीं ? आखिर, उसकी भी समस्या तो तुम्हारी ही जैसी होगी। अब कहो, क्या तुम चाहते हो कि मैं तब जाऊँ जब विद्यापीठ में एक भी छात्र नहीं रहे ? यह कहते-कहते जैन साहब जोरों से हँस पड़े और पूरा वातावरण ही हास्य में परिवर्तित हो गया ।
डा० जैन साहब से मेरी अंतिम भेंट उनके महाप्रयाण से पांच महीने पूर्व जबलपुर अस्पताल में हुई, जब मैं विद्यापीठ के अपने सहकर्मी डा० रामप्रकाश पोद्दार के साथ प्राच्यविद्या सम्मेलन में भाग लेकर उज्जैन से लौट रहा था। ज्यों ही हमारे सहृदय मित्र डा० विमल प्रकाश जैन ने उन्हें सूचित किया"मुजफ्फरपुर के पोद्दारजी तथा देवनारायणजी शर्मा आप से मिलने आये हैं," वे इस अधीरता से विस्तर पर उठ बैठे और हाथ बढ़ाकर हम दोनों को उन्होंने पकड़ लिया मानो, दीर्घकाल की खोयी सम्पत्ति हाथ आ गयी हो। उस रुग्णावस्था में भी उनका सहज वात्सल्य उमड़ पड़ा। उस पूज्य गुरु का यह अंतिम पार्थिव स्पर्श था, जिसने अपने जीवन में छात्रों के लिए सर्वस्व लुटाना ही सोखा था, उनसे कुछ भी प्राप्त करना नहीं।
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