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________________ ऋषिकल्प पज्यगुरु डा. हीरालाल जैन डा० देवनारायण शर्मा सर्वप्रथम १६५८ में मैंने जैन साहब के प्रथम दर्शन किये। इस प्रथम दर्शन ने ही मेरे जैसे व्यक्तियों को प्राकृत जैनशास्त्र जैसे विषय का भी एक श्रद्धालु छात्र बना दिया। उनके महान् व्यक्तित्व में मैंने एक सच्चे उदार गुरु के दर्शन किये, जो आज दुर्लभ है। ___ डा० जैन साहब अन्तेवासी छात्रों को अपने परिवार के ही सदस्य समझते थे, इस कारण उनपर होनेवाले व्यय की प्रतिप्राप्ति उन्हें स्वीकार्य नहीं होती थी। १९६० की बात है, एम० ए० परीक्षा का फार्म भरा जा रहा था। मेरे अनुज पं० प्रभुनारायणजी के पास परीक्षा-शुल्क की रकम कुछ कम थी। डा० जैन साहब ने उसे पूराकर फार्म विश्वविद्यालय में भिजवा दिया। दूसरे दिन जब वे रुपया वापस करने गये तो डा० जैन साहब ने यह कहकर कि "मैंने अपना काम किया है, इसमें देने-लेने का प्रश्न ही कहां उठता," रुपया लेना अस्वीकार कर दिया। अपने छात्रों के प्रति उनकी यह उदारता बहुधा देखी जाती थी। डा० जैन साहब सत्य को प्रिय बनाकर कहने में अप्रतिम थे। वे अपने छात्रों की भूलों को भी स्पष्ट भूल कह कर उन्हें संकोच में डालना पसंद नहीं करते थे। वे उन भूलों को या तो स्वयं सुधार देते अथवा सम्बन्धित पुस्तक का नाम-निर्देश कर उन्हें देख लेने का सुझाव दे देते। किन्तु अपनी भलें, वे छात्रसमूह के सामने भी निस्संकोच बता देते । ऐसा मैंने एकाधिक प्रसंगों में देखा था । बिहार विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो. पं० रामनारायणजी शर्मा के आकस्मिक निधन पर विद्यापीठ में आयोजित शोकसभा में इनके विशाल पाण्डित्य की चर्चा करते हए डा० जैन साहव ने कहा-“गम्भीर शास्त्रीय प्रसंगों की बात तो दूर रही, सामान्य बोल-चाल के प्रसंगों में भी पण्डितजी बड़े सावधान थे।" दृष्टान्त-स्वरूप अपने ही साथ हुई बात-चीत का उल्लेख करते हुए, उन्होंने कहा-"हम दोनों 'लंगट सिंह कालेज' से लौट रहे थे। वहाँ विद्वद्गोष्ठी में हुए पण्डितजी के भाषण की प्रशंसा करते हुए मैंने कहा-पण्डितजी ! आपने तो आज गोष्ठी में रसोत्पत्ति कर दी। इस पर वे मुसकराते हुए बोल पड़े-"जैन साहब ! "रसो नोत्पद्यते व्यज्यते"। "उनकी विद्वत्ता की अमिट छाप मेरे हृदय पर है ।" यह उद्गार जैन साहब के सरल एवं उदार हृदय का परिचायक है। डा० जैन साहब अपने विनोदी स्वभाव के कारण नीरस प्रसंगों को भी एक क्षण में सरस बना देते थे। जब १९६१ में उनके विद्यापीठ छोड़ने की बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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