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________________ 288 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है क्योंकि वह व्यवहार में अनुपयोगी है जो व्यवहार में अनुपयोगी है वह प्रमाण नहीं होता है, जैसे चलते हुए मनुष्य का तृणस्पर्श से उत्पन्न होनेवाला अनध्यवसायादि ज्ञान व्यवहार में अनुपयोगी होने से अप्रमाण है । इसी प्रकार बौद्ध परिकल्पित अनिश्च - यात्मक निर्विकल्पक ज्ञान भी व्यवहार में उपयोगी नहीं है इसीलिए, वह भी मिथ्या ज्ञानों की तरह प्रमाण नहीं है ।' उपर्युक्त अनुमान में व्यवहार में अनुपयोगी होने से इस हेतु के द्वारा निर्विकल्पक ज्ञान अप्रमाण है । इस साध्य की सिद्धि की गई है । अतः सिद्ध है कि निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है । बौद्ध यह कहते हैं कि निर्विकल्पक ज्ञान में सविकल्पक ज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति होती है । अतः निर्विकल्पकजन्य सविकल्पक ज्ञान के द्वारा इष्ट अनिष्ट का निश्चय करके प्रमाता अपनी अभीष्ट पदार्थ में प्रवृत होता है, इस प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान व्यवहार में उपयोगी होने से प्रमाण है। हेमचन्द्र जी इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि यदि निर्विकल्पक ज्ञान के उत्तरकाल में उत्पन्न होने वाला विकल्प व्यवहार में उपयोगी है तो, फिर स्पष्ट है कि सविकल्पक ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिए, शिखंडी की तरह निर्विकल्पक को प्रमाण मानने से क्या लाभ है ?" प्रभाचन्द्राचार्य भी इसका विस्तृत खण्डन न्यायकुमुदचन्द्र एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड में करते हुए कहते हैं कि यदि उपर्युक्त ढंग से निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण माना जायेगा तो सन्निकर्षादि को भी प्रमाण मानना पड़ेगा जो aai को अभीष्ट नहीं है । निर्विकल्पक ज्ञान सन्निकर्षादि की तरह ही अचेतन है क्योंकि दूसरों की सहायता की अपेक्षा के बिना अपने स्वरूप का उपदर्शक नहीं है | अतः वह चेतन कैसे हो सकता है ? सन्निकर्षादि से भिन्नता प्रकट करने के लिये ज्ञान को निश्चयात्मक अपने स्वरूप का निश्चय करनेवाला और व्यापारवान् मानना पड़ेगा । अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अनिश्चयात्मक, प्रचेतन और निर्व्यापार होने से प्रमाण नहीं है । "मैं देखता हूँ" इस प्रकार के विकल्प का उत्पादक मानकर निर्विकल्पक ज्ञान को व्यापारवान् माना जायेगा तो निर्विकल्पक ज्ञान निश्चयात्मक सिद्ध हो जायेगा क्योंकि बौद्ध सिद्धान्तानुसार व्यापार व्यापारवान् का स्वरूप होने के कारण दोनों भिन्न नहीं हैं । व्यापार और व्यापारवान् इन दोनों में कार्य कारण सम्बन्ध नहीं है ताकि उन दोनों को भिन्न-भिन्न माना जाये । दूसरी बात यह है कि यदि व्यापार को व्यापारवान् का कार्य माना जाता है तो जिस प्रकार पुत्र १. न्यायकुमुदचन्द्र, ( प्रभाचन्द्र ) प्रथम भाग १ । ३, पृ० ४८ । न चानिश्चयात्मनः प्रामाण्यम् - तत्प्रसंगात् । प्र० क० भा०, १३ पृ० ३२ । २. निर्विकल्पोत्तरकालभाविन: - किम्विकल्पेन शिखण्डिनेति ? प्र० मी०, पृ० २३ । ३. परनिरपेक्षतया स्वरूपोपदर्शकं चेतनमुच्यते – । न्या० कु० च०, ( प्रभाचन्द्र ), १1१1३, पृ० ४८ । ४. वही, पृ० ४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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