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________________ जैन तर्कशास्त्र में निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण की मीमांसा हेमचन्द्र', एवं अभिनवभूषण जैसे तर्कशास्त्रियों ने उनके "कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् " सिद्धान्त का तार्किक रूप से खंडन किया है । निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है क्योंकि वह समारोप का विरोधी नहीं है । जैन तर्कशास्त्र में निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण न मानने का प्रमुख कारण यह है कि उसमें प्रमाण का लक्षण घटित नहीं होता है । प्रमाण संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित पदार्थ को जानता है । दूसरे शब्दों में प्रमाण संशयादि का विरोधी होता है । संशयादि समारोप का विरोधी निश्चयात्मक ज्ञान ही हो सकता है इसलिए वही ज्ञान प्रमाण है । माणिक्यनन्दि ने कहा भी है " तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत्" । निर्विकल्पक ज्ञान से संशयादि समारोप का निराकरण संभव नहीं है, इसलिए वह अनिश्चयात्मक है । अनिश्चयात्मक होने से वह निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है । जब निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं होता तब उसको प्रत्यक्ष प्रमाण कहने का प्रश्न ही नहीं है । " व्यवहार में अनुपयोगी होने से निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने निर्विकल्पक ज्ञान की समीक्षा करते हुए कहा है कि निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता है, क्योंकि प्रमाण व्यवहार में उपयोगी होता है । अतः जो ज्ञान व्यवहार में उपयोगी होगा वही प्रमाण हो सकता है अन्य नहीं । निर्विकल्पक ज्ञान को तर्क की कसौटी पर चढ़ाने से ज्ञात होता है कि व्यवहार में उसका कोई उपयोग नहीं है" क्योंकि व्यवहार में किसी पदार्थ की परिच्छित्ति के बाद प्रमाता उस पदार्थ को हित का कारण समझकर ग्रहण करता है या अहित का कारण निश्चय कर उसका त्याग कर देता है । किन्तु निर्विकल्पक ज्ञान में 'स्व' और 'पर' पदार्थ का निश्चय करने की शक्ति नहीं है, तव वह व्यवहार में उपयोगी किस प्रकार माना जा सकता है । व्यवहार में उपयोगी नहीं होने के कारण मिथ्याज्ञान की तरह अनिश्चयात्मक होने से किसी विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी । " अतः कौवे के कितने दाँत हैं इसका परीक्षण करने की तरह निर्विकल्पक ज्ञान में प्रमाणत्व की परीक्षा करना निष्फल परिश्रम करना है । " प्रभाचन्द्राचार्य ने इस विषय में यह अनुमान दिया है १ प्रमाणमीमांसा, १, १, सू० २९, पृ० २३ । २. न्यायदीपिका, प्रत्यक्षप्रकाश, पृ० २५ । ३. परीक्षामुख सूत्र, १ । ३ । ४. -निर्विकल्पकस्य - -- समारोपाविरोधित्वात् कुतः प्रत्यक्षत्वम् ? -न्याय दीपिका, (अभिनव भूषण), पृ० २५ । ५. प्रमाणमीमांसा, पृ० २३ । ६. हिताहितप्राप्तिपरिहार समर्थं हि प्रमाणं - 1 प०मु० सूत्र, (माणिक्य नन्दि), ७. न्यायकुमुदचन्द्र १ । ३, पृ० ४८ । ' ८. व्यवहारानुपयोगिनश्च - निष्फलः परिश्रमः । प्र० मी० पृ० २३ | 287 Jain Education International For Private & Personal Use Only ११२ www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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