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________________ जैन तर्कशास्त्र में निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण की मीमांसा 289 पिता का व्यापार नहीं कहलाता है उसी प्रकार कार्य को व्यापारवान् का व्यापार नहीं माना जा सकता है । ' इसके अतिरिक्त एक यह भी बात विचारणीय है कि क्या जो निर्विकल्पक ज्ञान स्वयं अनिश्चयात्मक है तो इससे उत्पन्न होनेवाला विकल्पक क्या निश्चयात्मक हो सकता है ? विस्तृत विमर्श के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि या तो विकल्प भी निर्विकल्पक ज्ञान की तरह अनिश्चयात्मक है या ज्ञान भी विकल्प की तरह निश्चयात्मक है, अन्यथा उन दोनों में कार्य-कारण भाव भी नहीं बन सकता है । यदि उपर्युक्त समस्या का समाधान यह कहकर किया जाता है कि विकल्पक ज्ञान और निर्विकल्पक ज्ञान दोनों की उत्पादक सामग्री अलग-अलग है, इसलिए विकल्पक ज्ञान निश्चयात्मक होता है और निर्विकल्पक ज्ञान निश्चयात्मक नहीं होता है, तो इस तर्क का खण्डन करते हुए प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं कि आपका उक्त तर्क तभी संगत हो सकता था जव, निर्विकल्पक और सविकल्पज्ञान अलग-अलग भेद सिद्ध हो जायँ, किन्तु दोनों की अलग-अलग प्रतीति नहीं होती है। इसके विपरीत एक मात्र 'स्व' और 'पर' का निश्चयात्मक इन्द्रियादि से उत्पन्न सविकल्पक ज्ञान की अनुभूति होती है । अतः दोनों की अलग-अलग प्रतीति न होने से उत्पादक सामग्री के भेद से उनके स्वरूप में भेद नहीं किया जा सकता है । प्रमेयकमलमार्तण्ड में बौद्धों की आलोचना करते हुए कहा गया है कि यदि वौद्ध अपने पक्ष के समर्थन में तर्क दें कि निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञानों में युगपद् वृत्ति अथवा लघुवृत्ति के कारण उनमें एकत्व का अध्यवसाय करके विकल्पक ज्ञान में वंशद्य की प्रतीति हो जाती है, तो बौद्धों का उपर्युक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि, यह पहले ही कहा जा चुका है कि सविकल्पक को छोड़ कर निर्विकल्प की प्रतीति नहीं होती है । जव दो पदार्थ चैत्र और मैत्र की तरह पृथक्-पृथक् सिद्ध हों तो उनमें एक का आरोप दूसरे में किया जा सकता है । व्यवहार में बच्चे में सिंह का एकत्वाध्यवसाय करने का कारण भी यही है कि दोनों की प्रतीति अलग-अलग होती है, किन्तु निर्विकल्पक और सविकल्पक की प्रतीति इस प्रकार की नहीं होती है इसलिए इन दोनों में एकत्व का अध्यवसाय नहीं किया जा सकता है | अत: अनुभव में आनेवाले निर्विकल्पक ज्ञान में वैशद्यपना की कल्पना करना अनुचित एवं असंगत है । १. अथ तत्कार्यत्वात् भिन्नोऽसौ कथं तर्हि तद्व्यापारः ? वही, पृ० ४९ । २. वही, पृ० ४९ । ३. विलक्षण सामग्री प्रभवता च अनयोः भेदे सिद्धे सिद्धयेत् न च विकल्पव्यतिरेकेण अविकल्पक स्वरूपं स्वप्नेऽपि सिद्धम् । वही, पृ० ४९ । ४. प्र० क० मा०, १३, पृ० २८ । न्या० कु० च०, १1३, पृ० ४९ । १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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