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हिन्दू तथा जैन साधु-प्राचार साध-आचार-कथन के क्रम में भागवतकार द्वारा प्रस्तुत महामुनिदत्तायजी२२ की आत्मकथा पर दृष्टिपात करने से परमहंसों के आचार के सम्बन्ध में भागवत का दृष्टिकोण और स्पष्ट हो जाता है।
विवेकचूडामणि संन्यास-व्रत का अधिकारी
यहाँ चार्य शंकर ने तत्त्वज्ञ विरागी मुनि बनने के लिए किसी आश्रमपरम्परा का अनुसरण नहीं किया है। उनकी दृष्टि में संन्यास व्रत के साधक को न अनिवार्यतः पहले गृहस्थ बनने की आवश्यकता है और न वानप्रस्थ बनने की ही। उसे तो बुद्धिमान्, विद्वान्, सदसद्विवेकी और वैराग्यवान्' होना चाहिए, चाहे वह किसी भी आश्रम का क्यों न हो। मुनि का प्राहार-विहार
आत्मलीन मुनि के प्राहार-विहारादि के सम्बन्ध में आचार्य के विचार इस प्रकार हैं-ब्रह्मवेत्ता विद्वान् का चिन्ता और दीनता रहित भिक्षान्न ही भोजन नदियों का जल ही पान होता है। उनको स्थिति स्वतंत्र और निरंकुश होती है। उन्हें किसी तरह का भय नहीं होता, वे वन तथा श्मशान में सुख की नींद सोते हैं। धोने-सुखाने आदि की अपेक्षा से रहित दिशा ही उनके वस्त्र हैं, पृथ्वी ही विछावन है तथा उनका अपना आना-जाना वेदान्त-विथियों में हुआ करता है एवं परब्रह्म में ही उनकी क्रीड़ा होती है । वह आत्मज्ञानी महापुरुष इस शरीर रूपी विमान में बैठ कर अर्थात् अपने सर्वाभिमान शून्य शरीर का आश्रय लेकर दूसरों के द्वारा उपस्थित किये गये समस्त विषयों को बालक के समान भोगता है, किन्तु, वस्तुतः वह प्रकट चिन्ह रहित और वाह्य पदार्थों में आसक्ति रहित होता है । चैतन्यरूप वस्त्र से युक्त वह महाभाग्यवान् पुरुष वस्त्रहीन, वस्त्रयुक्त अथवा मृगचर्मादि धारण करने वाला होकर उन्मत्त के समान, वालक के समान अथवा पिशाचादि के समान स्वेच्छानुकूल भूमण्डल में विचरता रहता है। वह ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कहीं मूढ, कहीं विद्वान् और कहीं राजा-महाराजाओं के से ठाट-बाट से युक्त दिखायी देता है। वह कहीं प्रान्त, कहीं शान्त और कहीं अजगर के समान निश्चल भाव से पड़ा दोख पड़ता है। इस प्रकार निरन्तर परमानन्द रस में मग्न हुआ विद्वान् कहीं सम्मानित' कहीं अपमानित और कहीं अज्ञात रहकर अलक्षित गति से विवरता है। वह निर्धन होने पर भी सदा सन्तुष्ट, असहाय होने पर भी महाबलवान्, भोजन न करने पर भी नित्य तृप्त और विषमभाव से वर्तता हुआ २२. भाग० स्कन्ध ७, अ० १३, श्लोक ३४-४२ ३. विवेक० श्लो० ५४० १. विवेकचूडामणि श्लो० १६, १७
४. , , ५४१ २. " " ५३९
५. , , ५४३
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