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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
नहीं हो जाता। संन्यासी को चाहिए कि जाति-च्यूत तथा गोघाती आदि पतितों को छोड़कर चारो वर्णों से१२ भिक्षा ग्रहण करे। पर यहाँ साधु यह अवश्य मर्यादा रखे कि अनिश्चित सात घरों से जो कुछ प्राप्त हो जाए, उतने से ही संतोष कर ले, आगे पैर न वढ़ावे। इस प्रकार भिक्षा प्राप्त कर संन्यासी ग्राम से बाहर किसी जलाशय' पर चला जाय एवं वहाँ हाथ-पैर धोकर जल के द्वारा भिक्षा पवित्रकर, फिर शास्त्रोक्त विधि से जिन्हें भिक्षा की मात्रा देनी चाहिए, उन्हें देकर, जो कुछ बच जाय उसे मौनपूर्वक ग्रहण कर ले । दूसरे समय के लिए बचाकर कुछ भी न रखे और न अधिक माँग कर ही लाये। संन्यासी की मध्यस्थ वृत्ति
संन्यासी की विशिष्टता बताते हुए भागवतकार ने बड़े ही सशक्त शब्दों में कहा है कि संन्यासी को विश्वबन्धुत्व१४ की भावना से युक्त, शान्त, भगवतपरायण, स्वावलम्बी एवं एकल पर्यटक होना चाहिए। वह न तो शरीर की अवश्यम्भावी मृत्यु का अभिनन्दन करे और न अपने लिए अनिश्चित जीवन का, अपितु समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और नाश के कारणभूत काल की निरपेक्ष भाव से प्रतीक्षा करता रहे। असत्य-अनात्मवस्तु का प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रों की ओर भी वह साधु आकष्ट न हो। संन्यासी को न अपने जीवन-निर्वाह के लिए कोई जीविका, न केवल वाद-विवाद के लिए कोई तर्क और न संसार में किसी का पक्ष-ग्रहण'६ ही करना चाहिए। संन्यासी के लिए शिष्यमण्डली. जुटाना, बहुत ग्रन्थों का अभ्यास करना, व्याख्यान देना, वड़े बड़े कामों का प्रारम्भ करना आदि निषिद्ध समझा गया है । पाश्रम-बन्धन ही धर्म का कारण नहीं
शान्त समदर्शी यति के लिए किसी पाश्रम का बन्धन' ८ धर्म का कारण नहीं वह चाहे तो आश्रम के चिह्नों को धारण करे अथवा छोड़ दे। पर, ध्यान यह रहे कि आश्रम-चिन्ह-रहित होने पर भी वह साधु आत्मानुसंधान में लीन हो। वह हो तो अत्यन्त विचारशील, किन्तु, जान पड़े उन्मत्त और वालक की तरह । वह अत्यन्त प्रतिभाशील होने पर भी साधारण मनुष्यों की दृष्टि में ऐसा जान पड़े मानों कोई गंगा हो । वह निपुण होकर भी जड़वत् रहे, विद्वान् होकर भी पागल की तरह वातचीत करे और समस्त वेद-विधियों का ज्ञाता होकर भी पशुवृत्ति से अनियत-पाचरण२° करे। यदि वह ज्ञान-निष्ठ शौच, आचमन, स्नान एवं अन्यान्य नियमों का पालन करे भी तो लीलापूर्वक ही, शास्त्र-विधि के अधीन विधि-किकर१ होकर नहीं। १२. भाग० स्कन्ध ११, अ० २८, श्लो० १८ १७. , , , , , ८ १३. , , , , , , १९ १८. भागवत, स्कन्ध ७, अ० १३, श्लो०९ १४. , , ७ , १३, , ३ १९. , , , , १० १५. , , , , , , ६ २०, , , ११ ,, १८ , २९
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