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________________ हिन्दू तथा जैन साधु-आचार 255 ४ रहकर बूंदों के आघात का सहन करना, हेमन्तकाल में आकण्ठ जलमग्न रहना आदि घोर तप के पक्ष में ये भी हैं । कन्द-मूल-फलों को केवल आग में भूनकर खा लेना अथवा समयानुसार पके फलों के द्वारा ही निर्वाह कर लेना इन्हें अभीष्ट है । यदि फलों के कूटने की आवश्यकता हो तो वानप्रस्थी ओखली में अथवा शिला पर उन्हें कूट ले तथा उनके अभाव में दांतों से ही चबा ले । साधु को यह जानकारी रहनी चाहिए कि कौन सा पदार्थ, किस समय कहाँ से लाना चाहिए एवं क्या-क्या उसके अनुकूल है, तदनुसार ही वह अपने जीवन निर्वाह के लिए कन्द-मूल- फलादि का चयन किया करे । देश, काल आदि से अनभिज्ञ व्यक्ति द्वारा लाये हुए एवं पूर्व संचित पदार्थों को वह कदापि ग्रहण न करे । वानप्रस्थी नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु - पुरोडाश आदि तैयार करे तथा उन्हीं से समयोचित आग्रायणादि वैदिक कर्म करे । वह साधु वेदविहित पशुओं द्वारा यज्ञ कदापि न करे । वानप्रस्थी के लिए भी भागवतकार ने अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य प्रादि क्रियाओं का वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थों के लिए । वृद्धावस्था को प्राप्त साधु का शरीर त्याग वृद्धावस्था को प्राप्त एवं आश्रमोचित नियमों के पालन में असमर्थ वानप्रस्थी के लिए भागवतकार का विधान कुछ अनोखा ही है । उन्होंने इस अवस्था में तपस्वी के लिए यज्ञाग्नियों को भावना के द्वारा अन्तःकरण में आरोपित कर ईश्वराभिमुख मन के साथ प्रग्नि में प्रवेश कर जाने का आदेश दिया है । संन्यास- व्रत और उसका पालन ० पर, वानप्रस्थी में यदि ब्रह्म विचार की सामर्थ्य हो तो शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह संन्यास - व्रत ग्रहण कर ले तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समय की अपेक्षा न रखकर पृथ्वी पर विचरण करे । प्रथम तो इस अवस्था में वस्त्र पहनने की आवश्यकता ही नहीं रहती, पर यदि वह वस्त्र पहने भी तो केवल कोपीन जिससे उसके गुप्त अंग ढँक जाएँ और जब तक कोई प्रापत्ति न आवे तव तक दण्ड तथा श्रपने आश्रम-चिह्नों के सिवा वह यति अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करे। साथ ही "दृष्टिपूतं न्यसेत् पाद" आदि विधि के अनुसार नित्य आचरण में प्रवृत्त रहे । भागवतकार ने यहाँ स्पष्ट कह दिया है कि वाणी के लिए मौन, शरीर के लिए निश्चेष्ट स्थिति और मन के लिए प्राणायाम ही दण्ड है । अतः जिस यति के पास उक्त तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल बॉस का दण्ड धारण करने से दण्डी स्वामी ४. भाग० स्कन्ध ११, अ० १८, श्लो० ४ ५. ६ ६. ७. " "" "" Jain Education International " " " 39 17 11 21 "" "" " "3 " ७ ८ ८. भाग० स्कन्ध ११, अ०१८, श्लो० ११ ९. भाग० स्कन्ध ७, अ० १३, श्लो० १ १०. ११. 33 13 For Private & Personal Use Only २ 19 "1 ११ अध्याय २८, श्लो० १७ 33 www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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