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________________ 254 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 उपादान कारण स्वरूप मिट्टी, वेणु, काष्ठ और तुम्बी के नाम गिनाये हैं, साथ ही उसकी शुद्धि के लिए जल और गाय के वालों का विधान किया है। किन्तु उनकी दृष्टि वाह्य शुद्धि की अपेक्षा अन्तः शुद्धि की ओर ही अधिक है। उसे ही वे ज्ञान की उत्पत्ति एवं आत्मस्वातंत्र्य का हेतुभूत'५ मानते हैं। इसी कारण उन्होंने किसी आश्रम में प्रवेश करजाने मात्र को ही धर्म का हेतु नहीं, अपितु, उसका हेतु तो उस व्यक्ति विशेष को प्रात्मोन्मुख साधना को माना है। संन्यास का उद्देश्य निष्क्रियता नहीं सक्रियता ___याज्ञवल्क्य धति, क्षमा, दम, अस्तेय आदि को ही धर्म का वास्तविक रूप मानते हैं । इससे भिन्न, उनके धर्म की परिभाषा कोई और नहीं। उनकी दष्टि में चतुर्थाश्रम में प्रवेश करने का तात्पर्य यह कदापि नहीं कि पूर्वाश्रमों के लिए कहे गये इन धर्मों से वह यति सर्वथा मुक्त हो गया, उस पर अब किसी तरह लोक-धर्म का अंकुश रहा ही नहीं। बल्कि सच्चाई तो यह है कि पूर्वाश्रमों में वह धर्म के जिन रूपों का पालन आंशिक रूप से अभी तक करता रहा है, उनका पालन अब उसे पूर्ण रूप से करना है । यही चतुर्थाश्रमी की प्रौढ़ता है, यही उसकी साधना की परिपक्वता है। भागवतपुराण साध-प्राचार के सम्बन्ध में महर्षि व्यास भी स्मृतिकारों का हो अनुसरण करते हैं, यत्र-तत्र यदि कुछ अन्तर दीखता भी है, तो वह कालभेद से ही, सिद्धान्तभेद के कारण नहीं। वानप्रस्थ धर्म तथा उसका पालन भागवतकार ने भी वानप्रस्थी वनने से पहले साधु के लिए गृहस्थ बनना अावश्यक माना है। उनके मतानुसार साधु-वृत्ति धारण करलेने पर द्विज यथास्थिति उचित समझे तो पत्नी की रक्षा का भार पुत्र को सौंप दे, अथवा पत्नी को अपने साथ ही रखकर प्रायु का तीसरा भाग वन में संयमित रूप से व्यतीत करे । उस अवस्था में वानप्रस्थी के आहार होंगे वन के पवित्र कन्द, मूल और फल तथा शरीर ढाँकने के लिए वस्त्र की जगह वृक्ष की छाल, घास-पात और मृगछाला । साधु के लिए केश, रोएँ, नख और दाढ़ी-मूंछ आदि शरीर के मल हटाने का निषेध किया गया है । यहाँ तक कि दंतधावन करना भी विधि. विरुद्ध है । पर, आश्चर्य की बात यहाँ यह मालम पड़ती है कि उपर्युक्त निषेधों के बावजूद भागवतकार ने त्रिकालस्नान करने का विधान किया है। धरती पर शयन करना, ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि तापना, वर्षा ऋतु में खुले आकाश के नीचे १५. याज्ञ० वानप्रस्थ प्रकरण, श्लो० ६१ २. भाग० स्कन्ध ११, अध्याय १८, श्लो० २ १६. , , , , ६२ ३. , , , , , ३ १. भाग० स्कन्ध ११, अ० १८, श्लो० १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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