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________________ हिन्दू तथा जैन साधु-आचार - 253 कर दिया है कि उसे केवल रात्रि में ही और वह भी अवधानपूर्वक सोना चाहिए, जिसमें किसी जीव-जन्तु को कष्ट न पहुँचे और साथ ही उसके दिन की चर्या के सम्बन्ध में भ्रमण करने, खड़े अथवा बैठे रहने अथवा योगाभ्यास करने का आदेश दिया है । वानप्रस्थी की तपश्चर्या के काल एवं स्वरूप की चर्चा करते हुए मुनीश्वर ने ग्रीष्मऋतु में पंचाग्नि' के मध्य में बैठने, वर्षा ऋतु में खुले आकाश के नीचे शयन करने, हेमन्त ऋतु में गीले वस्त्रों को धारण करने अथवा इनके न कर सकने की स्थिति में यथाशक्ति तप आदि करते रहने के लिए निदेशित किया है। तपस्वी के समताभाव पर बल देते हुए याज्ञवल्क्य ने यहाँ तक कह दिया है कि यदि एक अोर तपस्वी को कोई काँटा चुभाकर कष्ट पहुँचावे और दूसरी तरफ चन्दन के लेप द्वारा सुख पहुँचाने का प्रयास करे, दोनों ही स्थितियों को योगी समान समझता हुआ, न क्रोध ही प्रकट करे और न प्रसन्नता ही। वानप्रस्थ के अन्तिम क्षण __ वानप्रस्थी के संयमित जीवन की ओर याज्ञवल्क्य की दृष्टि सदा सजग रही है । इसी कारण वृक्ष के नीचे वास'', प्राणरक्षार्थ वन में प्राप्त होनेवाले कन्द-मूल-फलादि अल्पाहार अथवा उसके अभाव में वानप्रस्थों के गृहों से या ग्राम से ही भिक्षा प्राप्त कर मौनधारण पूर्वक वह भी आठ ग्रास ही ग्रहण करने का विधान किया गया है। यदि इनमें भी किसी तरह की बाधा हो तो वह केवल वायू-पान करता हआ आमरण ईशान दिशा की ओर बढ़ता चला जाये। वानप्रस्थी के लिए महर्षि का यही अन्तिम निर्णय है । संन्यासव्रत के अधिकारी याज्ञवल्क्य के अनुसार जीवन के इस अन्तिम सोपान २ की ओर बढ़ने का अधिकार उसी गहस्थ अथवा वानप्रस्थ द्विज को है, जिसने वेदों की दक्षिणा के साथ प्राजापत्य यज्ञ पूर्णकर, वैतानाग्नियों को अपनी आत्मा में आरोपित कर लिया हो एवं जो वेदों का स्वाध्यायी, जपी तथा पुत्रवान् हो तथा जो अन्नदान पूर्वक आधान की हुई अग्नि में शक्ति के अनुसार यज्ञ कर चुका हो । भिक्षा-ग्रहण का उपयुक्त काल __ वह सर्वकर्मपरित्यागी एवं अखिललोकहित में प्रवृत्त यति शान्तभाव से तीन दण्ड एवं कमण्डलुधारणपूर्वक एकान्तवासी होकर रहे। वह अप्रमत्त, अनभिलक्षित तथा अलोलुप साधु मात्र प्राण-रक्षा 3 निमित्त ही, वह भी संध्या समय जब कि भिक्षुकों और याचकों से ग्राम मुक्त हो चुका हो, भिक्षा के लिए ग्राम में प्रवेश करे। मुनीश्वर ने यतियों के पात्र ४ का वर्णन करते हुए उसके ७. याज्ञ० वा० प्र० श्लोक ५१ ११. याज्ञ० वानप्रस्थ प्रकरण, श्लो० ५५ ८. , , , ५२ १२. , , , , ५६, ५७ १३. , , , , ५८, ५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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