SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 258 भी समदर्शी होता है । जैसे जल के ले जायी जाती है, उसी प्रकार देव के को प्राप्त करता है । VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 आत्मदर्शन का मार्ग शरीर-पोषण नहीं शोषण है किन्तु, प्रात्मदर्शनार्थी साधक के लिए आचार्य भी शरीर का पोषण नहीं' शोषण ही आवश्यक कानते हैं। क्योंकि इस प्रकार साधक की दृष्टि इस पंचभौतिक शरीर की ओर आकृष्ट न होकर उस शुद्ध आत्मतत्त्व की ओर उन्मुख हो जाती है, जिसका ज्ञान किसी भी मुमुक्षु के लिए अनिवार्य है । वस्तुतः आत्म तत्त्व के ज्ञान के अतिरिक्त साधक मुनि के लिए इस भव-वन्धन से मुक्त होने का दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है । मुनिव्रत स्वीकार करने की अवस्था आचार्य बट्टकेर ने मनु तथा याज्ञवल्क्य की तरह मुनि बनने के लिए न तो कोई आयु-सीमा ही निर्धारित की है और न मुनि वनने से पहले गृहस्थाश्रमी बनना हो आवश्यक माना है । उनकी दृष्टि में जिस व्यक्ति के हृदय से कामभोग की अभिलाषा समाप्त हो चुकी है, जिसकी बुद्धि धर्माभिमुख हो, वही विरक्तकाम वीरपुरुष निर्माल्यपुष्प की तरह गृहवास त्यागकर साधु-धर्म' स्वीकार कर सकता है । उसकी अवस्था चाहे जो भी हो, इससे साधु- व्रत स्वीकार में कोई कन्तर नहीं आता । मुनि के मूलगुण सत्य, अहिंसा, अदत्तपरिवर्जन, ब्रह्मचर्य तथा त्रिगुप्तियों में नित्य प्रवृत्ति एवं परिग्रह से निवृत्ति को आचार्य ने साधु के मूलगुण माने हैं। मुनि के लिए मिथ्यात्व, राग, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा प्रादि ग्रन्थियों से मुक्त होकर यथाजात प्रर्थात् दिगम्वरत्व स्वीकार कर जिन प्रणीत धर्म में अनुरक्त रहना अनिवार्य बताया गया है । उनको राय में तो साधु सदा निरोह, निष्काम भाव से जीवन-यापन करते हैं एवं उन्हें पंचतत्त्व - निर्मित अपने शरीर में किसी तरह की ममता नहीं रहती । " मुनि का प्रवास - काल एवं आवास-स्थान आचार्य ने साधु के लिये उपयुक्त आवास-काल सूर्यास्त - काल" को ही कहा है । यह काल अब जहाँ कहीं भी प्राप्त हो जाये। पर, वह आवास भी 11 प्रवाह से लकड़ी ऊँचे-नीचे स्थानों में वहा द्वारा ही उसका शरीर समयानुकूल भोगों ७ ६. विवेक० श्लो० ५४४ ७. ५५१ ८. ८६ ९. २२४ १. अनगारभावनाधिकार ७, ८ "" मूलाचार, मूलाचार Jain Education International "" 33 २. मूलाचार, अनगारभावनाधिकार १५. ३. १३ ४. ५. 73 33 #1 For Private & Personal Use Only 39 17 13 ار "1 21 १७. १८. www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy