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________________ विदेशी विद्वानों का जैनविद्या को योगदान 233 इस समय के जैनविद्या के दूसरे महत्त्वपूर्ण खोजी विद्वान् अल्वर्ट बेबर थे। उन्होंने डा० बूलर द्वारा जर्मनी को प्रेषित जैन ग्रन्थों का अनुशीलन कर जैन साहित्य पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। १८८२ ई० में प्रकाशित उनका शोधपूर्ण ग्रन्थ Indischen Studian (Indian literature) जैनविद्या पर विशेष प्रकाश डालता है। इन दोनों विद्वानों के प्रयत्नों से विदेशों में प्राकृत भाषा के अध्ययन को पर्याप्त गति मिली है। प्राकृत भाषा का अध्ययन : पाश्चात्य विद्वानों ने जैनविद्या के अध्ययन का प्रारम्भ प्राकृत भाषा के तुलनात्मक अध्ययन से किया। कुछ विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन करते हुए प्राकृत भाषा का अनुशीलन किया, तो कुछ विद्वानों ने स्वतन्त्ररूप से प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में अपनी शोध प्रस्तुत की। यह शोध-सामग्री निबन्धों और स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में प्राप्त होती है। पाश्चात्यविद्वानों के प्राकृत भाषासम्बन्धी सभी लेखों और ग्रन्थों का मूल्यांकन प्रस्तुत करना यहाँ संभव नहीं है। अतः ५९ वीं एवं २० वीं शताब्दी में प्राकृत भाषा-सम्बन्धी हुए अध्ययन का संक्षिप्त विवरण कालक्रम से इस प्रकार रखा जा सकता है। १६ वीं शताब्दी के चतुर्थ दशक में जर्मन में प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ हो गया था। होएफर की 'डे प्राकृत डिआलेक्टो लिब्रिदुओ' (१८३६ ए० डी०) तथा लास्सन की 'इन्स्टीट्यूत्सीओनेस लिंगुआए प्राकृतिकाए' इस समय की प्रमुख रचनाएँ हैं । पाँचवें दशक में प्राकृत ग्रन्थों का जर्मन में अनुवाद भी होने लगा था । यो बोलिक ने १८४८ ई० में हेम चन्द्र की 'अभिधानचिन्तामणि' का जर्मन-संस्करण तैयार कर दिया था।' स्पीगल (१९४१, ई०) ने 'मक्युंशनर गेलेर्ने आन्त्साइगन' में प्राकृत भाषा का परिचय दिया है। इस समय तुलनात्मक दृष्टि से भी प्राकृत भाषा का महत्त्व बढ़ गया था। अतः अन्य भाषाओं के साथ प्राकत का अध्ययन विदेशी विद्वान् करने लगे थे। डा० अर्नेस्ट ट्रम्प (१८६१-६२) ने इस प्रकार का अध्ययन प्रस्तुत किया, जो 'ग्रेमर आव द सिन्धी लेग्वेज कम्पेयर्ड विद द संस्कृत, प्राकृत एण्ड द काग्नेट इण्डियन वर्नाक्युलस' नाम से १८८२ ई० में प्रकाशित हुआ। १८६९ ई० में फेडरिक हेग ने अपने शोध-प्रवन्ध 'वगलेचुंग डेस् प्राकृत एण्ड डेर रोमानिश्चियन श्प्राखन' में प्राकृतभाषा का तुलनात्मक अध्ययन किया है। १९ वीं शताब्दी के अन्तिम दसकों में प्राकृत भाषा के व्याकरण का अध्ययन गतिशील हो गया था। डा० जे० एच० बूलर ने १८७४ ई० में 'द देशो शब्दसंग्रह आफ हेमचन्द्र' एवं 'आन ए प्राकृत ग्लासरी इनटायटिल्ड पाइयलच्छी' ये दो महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित किये। तथा १८८९ ई० में आपकी 'ई. यूबर डास लेवन डेस जैन मोएन्दोस, हेमचन्द्रा' नामक पुस्तक विएना से प्रकाशित १. P. Wiesinger---Grammar Indology : Past and Present. 1969, Bombay. २. The Indian Antiquary, Vol 3, p. 17-21 and p. 166-168. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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