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विदेशी विद्वानों का जैनविद्या को योगदान
प्रेम सुमन जैन
आधुनिक युग में प्राच्यविद्याओं का विदेशों में अध्ययन १७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ । संस्कृत भाषा एवं साहित्य के बाद पालि एवं बौद्धधर्मं का अध्ययन विदेशों में विद्वानों द्वारा किया गया । १८२६ ई० में बर्नोफ तथा लास्सन का संयुक्त रूप से 'ऐसे सुर ला पालि' निवन्ध प्रकाशित हुआ, जिसमें बुद्ध की मूल शिक्षाओं के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है । भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अनुसन्धान के क्षेत्र में १८६१ ई० तक जो ग्रन्थ प्रकाश में आये, ' उनमें प्राकृत व अपभ्रंश भाषा पर कोई विचार नहीं किया गया । क्योंकि तब तक इन भाषाओं का साहित्य विदेशी विद्वानों की दृष्टि में प्रकाश में नहीं आया था ।
किन्तु १८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राकृत भाषा का अध्ययन भी विदेशी विद्वानों द्वारा प्रारम्भ हो गया । फ्रान्सीसी विद्वान् चार्ल्स विल्किन्स ने 'अभिज्ञान शाकुन्तल' के अध्ययन के साथ प्राकृत का उल्लेख किया । हेनरी टामस कोलबुक ने प्राकृत भाषा एवं जैनधर्म के सम्बन्ध में कुछ निबन्ध लिखे । तथा १८९७ ई० में लन्दन के जे० जे० फर्लांग ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'शार्ट स्टडीज इन ए साइन्स आव कम्पेरेटिव रिलीजन्स' में शिलालेखों में उत्कीर्ण प्राकृत भाषा का उल्लेख किया है । इस प्रकार प्राकृत भाषा एवं जैनधर्म के अध्ययन के प्रति पाश्चात्य विद्वानों ने रुचि लेना प्रारम्भ किया, जो आगामी अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका थी ।
जैनविद्या के खोजी विद्वान्
पाश्चात्य विद्वानों के लिए जैनविद्या के अध्ययन की सामग्री जुटानेवाले प्रमुख विद्वान् डा० जे० जी० बुलर थे । उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज में व्यतीत किया । १८६६ ई० के लगभग उन्होंने पाँच सौ जैन ग्रन्थ भारत से वर्लिन पुस्तकालय के लिए भेजे थे । जैन ग्रन्थों के अध्ययन के आधार पर डा० बूलर ने १८८७ ई० में जैनधर्म पर जर्मन भाषा में एक पुस्तक लिखी, जिसका अंग्रेजी अनुवाद १६०३ ई० में लन्दन से 'द इंडियन सेक्ट श्राफ द जैन्स' के नाम से प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक में डा० बुलर ने कहा है कि जैनधर्म भारत के बाहर अन्य देशों में भी फैला है तथा उसका उद्देश्य मनुष्य को सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त करना रहा है ।
१.
Pot—The etymological study of Indo-European languages (1833-36). Shliescher-Comparative work in the grammar of Indo European
languages.
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