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________________ 206 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 मिलते है । लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में स्वाभाविकता और लालित्य आया है । ग्रन्थ का एक अत्यन्त आकर्षक तत्त्व छन्दों की विविधता है । इसमें सन्देह नहीं है कि अपने साहित्य - गुणों से यह ग्रंथ पाठकों का चित्ताकर्षण करेगा । डा० हीरालाल जैन ने अपनी पठनीय प्रस्तावना में संपादन में प्रयुक्त प्रतियों का परिचय, ग्रन्थकार, परिचय, कथावस्तु, कथा की पूर्वपरम्परा, कथासार, भाषा-शैली - काव्यगुण पर प्रकाश डालने के बाद इस काव्य में प्रयुक्त छंदों का विश्लेषण बहुत परिश्रम से किया है । ९२ छंदों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने लिखा है कि-यों तो अपभ्रंश के काव्यों में छंदों का अपना वैशिष्य रहता ही है पर सुदंसण चरिउ में छंदों का वैचित्र अन्य काव्यों की अपेक्षा बहुत अधिक पाया जाता है । कवि ने अपना छंद - कौशल प्रकट करने का इस काव्य में विशेष प्रयत्न किया है । अनेक अप्रसिद्ध छंदों का तो नामोल्लेख भी कर दिया है, तथा कहीं-कहीं उनके लक्षण भी दे दिए हैं । परिशिष्ट में इस काव्य की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त टिप्पण भी दे दिए हैं और उसके बाद शब्दकोश भी दिया गया है। मूल काव्य समाप्त होने के बाद उसका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है जिससे पाठकों को इस काव्य को समझने में बहुत सुगमता हो गई है । डा० हीरालालजी ने इसके संपादन में काफी श्रम किया है और ग्रंथ को अधिकाधिक उपयोगी बनाने का प्रयत्न किया है । आशा है, इस संस्करण से अधिकाधिक लाभ उठाया जायगा । ग्रंथकार नयनंदी ने अपने गुरु माणिक्यनंदी को त्रैविद्य का विशेषण दिया है और अन्तिम सन्धि में गुरु परम्परा भी विस्तार से ही है जिसके अनुसार कुन्दकुन्दान्वय के मुनि विश्वनंदी, अनेक ग्रंथों के रचयिता थे । उनके पट्टधर विशाखनंदी को सैद्धान्तिक की उपाधि दी है एवं रामनंदी को एक महान् धर्मोपदेशक निष्ठावान् तपश्वी एवं नरेन्द्रों द्वारा वंदनीय कहा है । अपने गुरु माणिक्यनंदी को उन्होंने महापण्डित की उपाधि दी है और कहा है कि वे समान ग्रंथों के पारगामी, अंगों के ज्ञाता एवं सद्गुणों के निवासभूमि थे । इस प्रशस्ति से उनकी विद्वद् गुरुपरम्परा का कुछ परिचय मिल जाता है । उनकी रचनाओं की खोज की जानी चाहिए । नयनंदी ने अन्य भी कुछ रचनाएं की होंगी | मालवप्रदेश के जैन ज्ञानभंडारों में वहुत-सी अज्ञात सामग्री मिल सकती है । यदि धारानगरी का महाराज भोज का ज्ञानभंडार तथा जैन शास्त्रभंडार सुरक्षित रहते तो अनेक कवियों एवं रचनाओं की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रकाश में आती । खैर, जो ग्रंथ-भंडार बच पाये हैं उनके साहित्य की खोज तो शीघ्र एवं अवश्य की जानी चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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