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________________ महाराजा भोज के समय का एक अपभ्रंश काव्य : सुदंसण चरिउ 205 अपभ्रंश साहित्य मर्मज्ञ डा० हीरालाल जैन ने इसका संपादन किया है जो उक्त संस्था के प्रारम्भिक निर्देशक रह चुके हैं । सुदंसण चरिउ बारह सन्धियों का अपभ्रंश काव्य है, इसमें जैनधर्म के पंचणमुक्कार मन्त्र के माहात्म्य को बतलानेवाली सेठ सुदर्शन की कथा दी गई है जो पूर्व जन्म में ग्वालिया थे। जैन मुनि और श्रावक के सम्पर्क से उसने नवकार मंत्र सीखा और बड़े मनोयोग से उसका स्मरण-जाप करता रहा। उसके फलस्वरूप वह आगामी जन्म में उसी सेठ की सेठाणी के कुक्षी से पुत्ररूप जन्मा। पर-स्त्रीगमन-निषेधरूपी व्रत को उसने बड़ी दृढ़ता के साथ पालन किया। सुदर्शन के मित्र की पत्नी कपिला ने उसे मोहित करने का प्रयत्न किया, पर वह असफल रही। फिर वहाँ के राजा की रानी अभया ने दासी के द्वारा अपने यहाँ बुलाया और काम-भोग हेतु प्रार्थना की। पर सुदर्शन अपने व्रत में दृढ़ बना रहा। फलतः रानी ने उस पर विपदा का पहाड़ ढा दिया। उस पर शील. खण्डन का मिथ्या दोषारोपण करने से राजा ने उसे मारने का आदेश दे दिया। पर उसके शील प्रभाव से व्यन्तरदेव ने मारनेवालों को स्तंभित कर दिया । इस घटना से जनता में उसका बड़ा यश फैला। आज भी जैन समाज में वह शीलव्रतधारी महापुरुष के रूप में मान्य है। अन्त में उसने जैन मुनि दीक्षा ग्रहण की और बड़े कठिन उपसर्ग सहकर कैवल्य प्राप्त कर मोक्ष धाम प्राप्त किया। जैन समाज में उसकी कथा बहत प्रसिद्ध है। अनेक ग्रन्थों में शील-माहात्म्य के दष्टान्त के रूप में सुदर्शन कथा लिखी गई है। कई स्वतन्त्र काव्य भी जैन विद्वानों ने बनाये हैं जिनमें से नयनन्दी का अपभ्रश काव्य अपना विशिष्ट स्थान रखता है। डा० हीरालाल जैन ने इसका सम्पादन बड़े परिश्रम से और अच्छे रूप में किया है। प्रस्तुत काव्य की रचना धारा नरेश भोज के राज्यकाल में हुई है। इसका रचना-काल संबत् ११०० है। काव्य के अन्त में कवि ने लिखा है-"वनों, ग्रामों और कुरवरों के निवेश सुप्रसिद्ध अवंती नामक देश में इन्द्रपुरी के समान विवध जनों की इष्ट गौरवशाली धारा नगरी है। वहाँ रण में दुर्द्धर शत्रुरूपी महान् पर्वतों के वज्र, ऋद्धि में देव और असुरों को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला त्रिभुवननारायण श्रीनिकेत उपाधिकारी नरेन्द्र पुङ्गव भोजदेव हैं। उसी नगर में अपने मणियों के समूह की प्रभा से सूर्य के प्रकाश को फीका कर देनेवाला एक वड़ा विहार जिन मंदिर है। वहीं नृप विक्रम काल के ११०० वर्ष व्यतीत होने पर कुशल नयनंदी ने अमात्सर्यभाव से यह केवली चरित्र रचा। प्रस्तुत काव्य के महत्त्व के संवन्ध से ग्रन्थमाला के समान्य सम्पादक डा० टाटिया ने लिखा है कि नयनंदी का यह चरित्रकाव्य-अलंकारिक काव्यशैली को परंपरा में है । जहाँ-तहाँ वर्णनों में समासों की श्रृंखलाएं एवं अलंकारों के जटिल प्रयोग पाठकों को बाण और सुबन्धु की याद दिलाते हैं। अर्थालंकारों के साथ-साथ शब्दालंकारों का प्रयोग भी बहुलता से हुआ है। भाषा को अनुरणनात्मक बनाने के लिए शब्दों की और शब्द-समूहों की आवृत्ति के अनेक उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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