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महाराजा भोज के समय का एक अपभ्रंश काव्य : सुदंसण चरिउ
श्री अगरचंद नाहटा
भारतीय भाषाओं में प्राकृत सबसे प्राचीन है । यद्यपि इसका रूप समय समय पर बदलता रहा है, प्राकृत का सुसंस्कृत रूप ही संस्कृत भाषा है । प्राकृत का अर्थ है स्वाभाविक और संस्कृत का अर्थ है परिष्कृत या संस्कारित । प्राकृत जनभाषा थी और संस्कृत विद्वज्जनानुमोदित साहित्यिक भाषा थी प्राकृत का अति प्राचीन साहित्य आज उपलब्ध नहीं है । करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर और बुद्ध ने जनभाषा में जो उपदेश दिए उन्हीं के संकलित ग्रन्थ वर्तमान में व्याप्त हैं । संस्कृत में वेदादि जो प्राचीन ग्रन्थ रचे गए वे प्राप्त प्राकृत ग्रन्थों से पुराने हैं पर वर्तमान संस्कृत से उनकी भाषा कुछ भिन्न है । प्राकृत का परिवर्ती रूप है अपभ्रंश, जिससे पाँचवी - छठी शताब्दी से लेकर सतरहवीं तक बहुत बड़ा साहित्य लिखा गया, उसमें से जैन अपभ्रंश साहित्य ही अधिक बच पाया है । जैनेतर अपभ्रंश रचनाएँ नगण्य सी हैं । जैन अपभ्रंश रचनाओं में से बहुत कम प्रकाश में आई हैं । पहले तो उन्हें प्राकृत के अन्तर्गत ही मान लिया गया, पर पाश्चात्य विद्वानों ने जब उनकी ओर ध्यान दिया तो अपभ्रंश भाषा का महत्त्व बहुत बढ़ गया, क्योंकि उत्तर भारत की सभी प्रान्तीय भाषाओं की जननी कहलाने का श्रेय उसे प्राप्त है । अतः प्रान्तीय भाषाओं के विकास का अध्ययन करने के लिए अपभ्रंश साहित्य का अध्ययन बहुत ही आवश्यक हो जाता है । इसी प्रावश्यकता के कारण अपभ्रंश ग्रन्थों का प्रकाशन विगत कुछ वर्षों में दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है ।
मध्यप्रदेश में प्राकृत साहित्य का निर्माण तो अधिक नहीं हुआ पर संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में पर्याप्त साहित्य लिखा गया है । मालव प्रदेश जिस प्रकार अपनी उपजाऊँ भूमि के लिए प्रसिद्ध रहा है उसी तरह साहित्य सर्जन भी मध्य प्रदेश में सर्वाधिक इसी प्रदेश में हुआ है । सम्राट विक्रम और भोज तो बहुत ही प्रसिद्ध दानी और विद्याव्यसनी राजा इसी प्रदेश में हुए हैं । महाराजा भोज ने अनेक विषयों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ स्वयं रचे और उनके राज्यकाल में उनका आश्रय पाकर बहुत बड़ा साहित्य रचा गया जिनमें से एक अपभ्रंश काव्य का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है ।
इस ग्रन्थ का नाम 'सुदंसण चरिउ' है और इसके रचयिता दिगंबर विद्वान् मुनि नयनन्दी हैं । जैन ज्ञान भण्डारों में इसकी कई हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त थीं, पर वे प्रकाशित नहीं हो सकी थीं। इधर प्राकृत जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली ( बिहार ) से इस ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ है । सुप्रसिद्ध
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