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________________ प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहसिक विकास 189 में अपभ्रश के दोहों में भाषा का जो निदर्शन प्रस्तुत किया है, उससे अपभ्रंश का एक यथार्थ रूप हमारे सामने आता है। आ० नमिसाधु ने स्पष्ट रूप से आभीरी या अपभ्रंश भाषा के लक्षण मागधी में कहे हैं जो एक रूढ़ि मात्र थी। उन्होंने प्राकृत की प्रधानता होने के कारण अपभ्रंश को भी उसके अन्तर्गत गिनाते हुए अपभ्रश के तीन मुख्य भेदों का निर्देश किया है-उपनागर, ग्राभीर और ग्राम्य । संस्कृत काव्यशास्त्रियों के विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रश जनसामान्य की और एक ग्राम्य (गवारूँ) भाषा थी। राजा भोज के युग में (१०२२-६३ ई०) प्राकृत की भाँति अपभ्रश का भी अच्छा प्रचार था। कहा जाता है कि स्वयं राजा भोज संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के अच्छे जानकार थे तथा तीनों भाषाओं में रचना करते थे । काव्य में भी तीनों भाषाओं का इस युग में समान रूप से महत्त्व था। गुजरात में अपभ्रंश का विशेष प्रचार था। वहाँ के लोग केवल अपनश से ही सन्तोष का अनुभव करते थे। यही नहीं, लाट देश के वासी संस्कृत से द्वेष रखते थे और प्राकृत को रुचिपूर्वक सुनते थे। गौडदेशीय लोगों को भी प्राकृत अच्छी लगती थी। शालिवाहन राजा के काल में प्राकृत का विशेष अभ्युदय हुआ। प्राकृत से भरित होने के कारण अपभ्रश की रचना भी अत्यन्त भव्य और सरस है। इसे मगध और मथुरा के लोग बोलते थे, जो कविजनों को भी इष्ट थी।' राजशेखर ने काव्य की मुख्य चार भाषाओं का निर्देश किया है। उसके अनुसार संस्कृत सुनने में दिव्य, प्राकृत स्वभाव से मधुर, अपभ्रंश सुभव्य और भूतभाषा सरस है। काव्यमीमांसा के विवरण से पता चलता है कि अपभ्रंश का प्रचलन मारवाड़ में ही नहीं, सम्पूर्ण प्राचीन राजस्थान, पश्चिमी पंजाब, गुजरात तथा मालवा में भी था । मुख्य रूप से डा० तगारे ने अपभ्रश के पश्चिमी, दक्षिणी और पूर्वी तीन भेद मानते हैं ।२ अपभ्रंश का लिखित साहित्य अभी तक उत्तर भारत को छोड़कर दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तीनों भागों से प्राप्त हो चुका है। वाल्टर शुबिंग ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के 'अष्टपाहुड' पर अपभ्रश का प्रभाव लक्षित किया है। इसी प्रकार शैवागम साहित्य में प्राकृत तथा अपभ्रश की प्रधानता है। अभी इस पर शोध कार्य नहीं हुआ। किन्तु इस ओर विशेष रूप से लक्ष्य देना आवश्यक प्रतीत होता है। वास्तव में प्राकृत और अपभ्रंश ही इस देश की ऐसी भाषायें हैं जो सहस्रों वर्षों से प्रवर्तित भाषाओं के इतिहास में विशेषतः आर्यभाषाओं की श्रृंखला के समान हैं। इनके विना इस देश का भाषाविषयक इतिहास सदा अपूर्ण रहेगा। वाकरनागल ने वहुत पहले ही यह तथ्य हमारे सामने रखा था कि वैदिक युग में भी वोलियाँ थीं, इसका प्रमाण अपभ्रश में मिलता है। सच बात तो यह है कि द्वितीय प्राकत में व्याकरणसम्बन्धी अनेक ऐसे रूप मिलते हैं, जिनकी व्याख्या पाणिनीय संस्कृत द्वारा १. महाराजा भोज : सरस्वतीकण्ठाभरण, २,१३-१६. २. डा० जी०वी० तगारे : हिस्टारिकल ग्रैमर ऑव अपभ्रंश, १९४८, पृ० १५-१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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