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190 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 नहीं की जा सकती। इनमेंसे एक अपान अथवा सप्तमो को विभक्ति 'हि' है जो पालि तथा प्राचीन संस्कृत 'वि' से उद्भूत हुई है, साहित्यिक संस्कृत से नहीं। 'धि' का ही रूप प्रत्यय रूप से ग्रीक में 'थि' मिलता है। वैदिक युग में भी इस प्रत्यय का प्रयोग मिलता है। किन्तु जिस परिनिष्ठित बोली से संस्कृत प्रादुर्भत हुई है, उसमें इसका अभाव है। (देखो, प्रो० वकरनागल : आल्टिण्डीशे ग्रामेटिक, पृ० २०)।
अपभ्रंश की ध्वनि-प्रक्रिया प्राकृत की वर्णानुपूर्वी से भिन्न नहीं है और न अलग कोई प्रतीकात्मक पद्धति ही इसमें पाई जाती है। आ० भरतमुनि तथा प्राकृत के वैयाकरणों के अनुसार संस्कृत से प्राकृत को वर्णमाला कुछ भिन्न है। बोलियों में सरलीकरण की प्रवृत्ति वैदिक युग से ही बराबर वनी रही है। अपभ्रंश में ह्रस्व 'ए' और 'ओ' का प्रयोग उसके बोलो रूप को द्योतित करता है। संस्कृत में 'ए, ओ' सन्ध्यक्षर हैं, किन्तु अपभ्रश में उनकी स्थिति भिन्न है। बोलियों में इनका प्रयोग स्वतन्त्र स्वर के रूप में होता रहा है। जव बोलियों का बराबर प्रभाव साहित्यिक संस्कृत पर पड़ रहा था, तब उनमें भी सन्धि की प्रवृत्ति मन्थर पड़ गयी थी। ऋक्संहिता में पादान्त और पादादि की संधि में भी यह वृत्ति स्पष्ट रूप से लक्षित होती है कि इन दशाओं में मूल पाठ में सन्धि होती ही नहीं थी और पादान्त तथा पादादि में सन्धि का होना व्याकरण की दृष्टि से उचित नहीं है ।२ डा० अल्सडोर्फ का कथन विलकुल ठीक है कि अपभ्रंश की प्रवृत्ति अन्त्य स्वरों के ह्रस्वीकरण की ओर है। इससे अपभ्रश की सरलीकरण को सामान्य प्रवत्ति का ही संकेत मिलता है। ईसा की प्रथम सहस्राब्दी के मध्य में आरम्भ हुई अपभ्रंश भाषा-परम्परा तुर्की ईरानी विजय के समय भी बरावर चल रही थी। कालिदास के 'विक्रमो
वशीय' में अपभ्रश के कुछ दोहे मिलते हैं। यदि ये प्रक्षिप्त हों, अथवा आद्य द्वितीय प्राकृत की कालिदास-कालीन-४०० ई०-अपभ्रश के परिवर्तित रूप हों, तो साहित्यिक अपभ्रंश-साहित्य का श्रीगणेश उक्त तिथि के आस-पास गिना जा सकता है। अपभ्रंश को कुछ विशेषताएं, उदा० अन्तिम 'ओ' का क्षयित होकर 'उ' हो जाना, इसके भी पहले ईसा की तृतीय शताब्दी में ही पश्चिमोत्तरी प्राकृत में दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार अपभ्रश प्राकृत की मूल परम्परा की मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की वह अवस्था है, जो नव्य भारतीय आर्यभाषाओं की पुरोगामिनी है और आधुनिक आर्यबोलियों की सामान्य पूर्वरूप है। १. सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन : भारत का भाषा-सर्वेक्षण, खण्ड, १, भा० १,
अनु० डा० उदयनारायण तिवारी, १९५९, पृ० २३२. २. बटकृष्ण घोष : प्राकृतिक सन्धि इन द ऋक्संहिता, इण्डियन लिंग्विस्टिक्स,
जिल्द ९, भा० १. ३. डा० सुनितिकुमार चटर्जी : भारतीय-आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि० सं०,
१९५७, पृ० ११७.
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