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________________ 188 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 से ही किसी शब्द को असाधु माना होगा, क्योंकि अर्थ को दृष्टि से असाधुता का प्रश्न ही नहीं उठ सकता । “गौ" के लिए "गावी" या "गौणी" शब्द अपभ्रंश में प्रचलित है तो इससे वैयाकरण को क्या कठिनाई है ? केवल यही कि वह संस्कृत में इस शब्द को नहीं अपना सकता है, क्योंकि संस्कृत व्याकरण की रूप-पद्धति के अनुसार वह निष्पन्न नहीं होता। अतएव शब्द-रचना संस्कृत से भिन्न होने के कारण जो शब्द असाधु या भ्रष्ट हैं उनसे भरित भाषा अपभ्रश है। अपभ्रश नव्य भारतीय आर्यभाषाओं की वह अवस्था है जो मध्यकालीन तथा आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के बीच एक सेतु के समान है ! यह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की वह पूर्वरूप है, जिससे सभी नव्य भारतीय आर्यभाषाओं का निकास एवं उन्मेष हआ। वास्तव में शब्द की प्रकृति ही अपभ्रंश है। जब आज "संस्कृत" शब्द का उच्चारण ही ठीक नहीं हो सकता और फिर “सांस्कुरुत" उच्चारण ठीक है या "संसकिरत" इसका निर्णय कैसे किया जा सकता है ? कबीरदास तो स्पष्ट शब्दों में कहते हैं "कबिरा संसकिरत कूपजल, भाखा बहता नीर ।" भर्तृहरि ने परम्परा से आगत तथा प्रसिद्ध एवं रूढ़ स्वतन्त्र अपभ्रंश भाषा का उल्लेख किया है। केवल शब्दों की ओर संकेत होने से यह नहीं समझना चाहिए कि उनका लक्ष्य कुछ शब्दों की ओर ही है, वरन् ऐसे शब्दरूपों तथा वाक्यों से भरित भाषा की ओर भी है। शास्त्र में तो संस्कृत से भिन्न सभी (प्राकृत भी) भाषाएँ अपभ्रंश कही जाती रही हैं। इसका मुख्य कारण यही प्रतीत होता है कि इन अपभ्रश बोलियों में प्रयुक्त देशी शब्द प्रामाणिकता की कोटि में नहीं आ सके। प्राकृतों को भाँति अपभ्रश भी मुख्य रूप से उत्तरीपश्चिमी बोली से निकली, इसलिए वह किसी प्रदेश की प्रतिनिधि भाषा नहीं थी; वरन् भाषागत अवस्थाविशेष का प्रतिनिधित्व अवश्य करती है। अपभ्रंश छठी शताब्दी के लगभग साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी थी, तभी तो छठी शताब्दी के प्रसिद्ध काव्यशास्त्री भामह संस्कृत, प्राकृत की भाँति अपभ्रश का भी काव्यभाषा के रूप में उल्लेख करते हैं । यद्यपि अपभ्रश का बोली के रूप में ई० पू० लगभग तीसरी शताब्दी में उल्लेख मिलता है। भरत मुनि ने "उकारबहुला" के रूप में जिस बोली का उल्लेख किया है और संस्कृतसाहित्य के समालोचकों-दण्डी, नमिसाधु, लक्ष्मीधर, आदि ने "आभीरादिगिरः" कह कर जिसका परिचय दिया है और महाकवि कालिदास ने "विक्रमोर्वशीय" १. "नाप्रकृतिरभ्रंशः स्वतन्त्रः कश्चिद् विद्यते । सर्वस्यैव हि साधुरेवापभ्रंशस्य प्रकृतिः । प्रसिद्धस्तु रूढितामापद्यमानाः स्वातन्त्र्यमेव केचिदपभ्रंशा लभन्ते । तत्र गौरिति प्रयोक्तव्ये अशक्त्या प्रमादादिभिर्वा गाव्यादयस्तत्प्रकृतयोपभ्रंशाः प्रयुज्यन्ते ।" - वाक्यपदीय, १,१४८, वार्तिक. २. "शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ।"-- काव्यलक्षण (दण्डी), १,१६. ३. "संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा।"-काव्यालंकार, १,१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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