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________________ प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास 187 भी प्राकृतों का प्रभाव उन पर बराबर लक्षित होता है।' यथार्थ में इस युग में प्राकृत और संस्कृत का विकास समानान्तर रूप से हुआ। संस्कृत का अनुसरण करती हुई प्राकृत भी साहित्यिक आसन पर समासीन हुई। यद्यपि साहित्यकारों के द्वारा प्राकृत को कृत्रिम रूप से भी ढाला गया, पर प्राकृत अपना देशीपन नहीं छोड़ सकी। फिर भी, संस्कृत-साहित्य की तुलना में प्राकृत का साहित्य किसी वात में न्यून प्रतीत नहीं होता। सभी प्रकार की साहित्यिक रचनाएँ इस भाषा में लिखी हुई मिलती हैं । आ० पाणिनि के युग के अनन्तर प्राकृतों की दो वातें विशेष रूप से लक्षित होती हैं-नये शब्दों का अधिग्रहण और प्राचीन संगीतात्मक स्वराघात की अपेक्षा वलात्मक स्वर-संचार । इस प्रकार यह एक भारतीय आर्यभाषायों की परवर्ती अवस्था एक संक्रमण की स्थिति को द्योतित करती है। इस अवस्था से ही भारतीय आर्यभाषाओं के विकास में एक नया मोड़ तथा महान् परिवर्तन लक्षित होने लगता है। अतएव इस अवस्था से होकर ही नव्य भारतीय आर्यभाषाएँ उत्पन्न होने की प्रक्रिया में वीजांकुर को भाँति परिलक्षित होती हैं। उनका उद्गम सहसा तथा अप्रत्याशित रूप से नहीं हुआ। तृतीय अवस्था प्राचीन युग की प्राकृत ही अशोक के अभिलेखों को स्थिति से गुजरती हुई लगभग दसवीं शताब्दी के मध्मयुगीन प्राकृत के रूप में मुख्यतः चार बोलियों में विभक्त की जा सकती है। पश्चिम में सिन्ध की घाटी में अपभ्रंश, दोआव में शौरसेनी, मथुरा में भी उसका केन्द्र था। इसके उपविभागों में गौर्जरी (गुजराती), अवन्ती (पश्चिमी राजस्थानी) और महाराष्ट्री (पूर्वी राजपूतानी)। प्राच्य प्राकृत मागधी और अर्धमागधी रूप में परिलक्षित होती हैं। अपभ्रंश से सिन्धी, पश्चिमो पंजाबी, और कश्मीरी; शौरसेनी से पूर्वी पंजाबी और हिन्दी (जनी अवन्ती) तथा गुजराती; जवकि मागधी के दो रूपों में से मराठी और बंगाल की अन्य बोलियाँ निकली हैं। आधुनिक बोलियों के विकासोन्मुख होने का समय १,००० ई० है। अपने मौलिक अर्थ में "अपभ्रश" का अर्थ हैविपथगामी। पतंजलि ने इसका प्रयोग प्राचीन मध्यकालोन भारतीय भाषा के कुछ रूपों के लिए किया है, जो उस समय की संस्कृत में सामान्य थे, पर उनकी दृष्टि में असाधु हैं । लगता है कि वैयाकरणों ने शब्द-रचना की दृष्टि १. ए० ए० मेक्डोनल : ए हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर; पंचम संस्करण, १९५८, दिल्ली, पृ० २६. २. वही, पृ० २७. ३. आर्थर ए० मेक्डानोल : ए हिस्ट्री ऑव संस्कृत लिटरेचर, पंचम संस्करण, १९५८, पृ० १२७. __ ज्यूल्स व्लाख : इण्डो-आर्यन, अनु० अल्फ्रेड मास्टर, पेरिस, १९६५, पृ० २१. Apabhramba --Its original sense is something "aberrant”. Patañjali applies it to certain forms of old Middle Indian, in coinmon use in the Samskrit of this time, but from his point of view, incorrect." (PP. 21). m Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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