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186 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 बोलियों में ऐसे कई सौ शब्द हैं, जिनकी व्युत्पत्ति भारतीय आर्य-उद्गमों से नहीं मिलती। हाँ, उनके प्राकृत पूर्व-रूपों का अवश्य सरलता से पुननिर्माण किया जा सकता है। उनका बाहरी रूप सामान्यत: युग्म व्यंजनों या नासिक्यों एवं तत्सम्बन्धित स्पर्शों एवं महाप्राणों से बना हुआ बिलकुल प्राकृत जैसा है तथा उनके व्यक्त भाव भी न्यूनाधिक अंशों में मूल गत या प्राथमिक रहते हैं । उदाहरण के लिए-अड्डा-व्यवधान, परदा; अट्टक्क-रुकावट; खिल्ला-खीला; कोराअपरिष्कृत या खुरदुरा; खोट्ट-धब्बा; खोस्स-भूसा; गोडु-पाँव; गोद्द-गोद; मुङ्ग-मूंगा; ढुंढ-ढूंढ़ना; फिक्का-फीका; लोट्ट-लोटना; लुक्क-छिपना, इत्यादि । इस प्रकार के लगभग ४५० भारतीय आर्य पुनर्गठित शब्द नेपाली-कोष में दिए हुए हैं, जिनके मूल शब्द अभारतीय-यूरोपीय अनिश्चित अथवा अज्ञात हैं।' मध्य भारतीय आर्यभाषाओं में अन्य बोलियों तथा विदेशी भाषाओं के शब्दों का आदान-प्रदान स्वच्छन्दता से हुआ है। संस्कृत के सम्बन्ध में भी जो यह कहा जाता है कि महर्षि पाणिनि ने आर्येतर प्रजाओं के परस्पर लेन-देन के कारण आर्यभाषा में अपनाये जानेवाले विदेशी शब्दों को रोकने के लिए संस्कृत भाषा को कठोर नियमों में बाँधकर उसै 'अमर' बना दिया, यह किसी एक अंश तक ही ठीक है। क्योंकि हम देखते हैं कि वैदिक भाषा की अपेक्षा संस्कृत में विदेशो भाषाओं के शब्द बहुत हैं। आ० पाणिनि ने जहाँ गणपाठों का विधान कर भाषा को व्यवस्थित बनाया, वहीं 'पृषोदरादि' तथा 'स्वार्थिक' प्रत्यय आदि का अभिधान कर आगत शब्दों के लिए प्रवेश-द्वार भी निर्मित कर गए। अतएव केवल अन्य भाषाओं और देशो बोलियों के शब्द ही संस्कृत में नहीं अपनाये, वरन् नये शब्दों का निर्माण और पुननिर्माण भी किया गया। भारत तथा बृहत्तर भारत में संस्कृत का विकास इन्हीं मूल प्रवृत्तियों के साथ लक्षित होता है। डॉ० सांकलिया के अनुसार संक्षेप में भारतीय आर्यभाषाओं का विकास इस प्रकार बताया जा सकता है : प्रथम प्राकृत (ई० पू० ३००-१०० ई०), अनन्त र संस्कृत (१००-७०० ई०) और तदनन्तर संस्कृत (७००-१२०० ई०) क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में वृद्धिंगत होती जा रही थी। प्रारम्भिक दो शताब्दियों में सम्पूर्ण भारतवर्ष में अनवच्छिन्न रूप से संस्कृत-प्राकृत में अभिलेख लिखे जाते रहे। ३,२० ई० गुप्तकाल में संस्कृत सुस्थिर रूप से पाटलिपुत्र में प्रतिष्ठित थी। मथुरा के अभिलेखों से भी पता चलता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी तक विशुद्ध प्राकृत का प्रचलन रहा है। दूसरी शताब्दी से संस्कृत में अभिलेख लिखे जाने लगे थे। छठी शताब्दी से उनका विशेष प्रचार हो गया था। फिर १. डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी : भारतीय-आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि० सं०, १९५७,
पृ० १११. २. एच० डी० सांकलिया : इण्डियाज लैंग्वेज, ई० पू० ३००-१९६० ई०, बुलेटिन
पूना, दिस० १९६८, पृ० १६. ३. वहीं, पृ० १३.
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