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________________ प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास द्वितीय अवस्था विकास की दूसरी अवस्था में प्रथम ईसवी के लगभग के पंजाब से खोतान में ले जाये गये धर्मपद के अंश तथा मध्य एशिया के खरोष्ट्री लिपि में लिखे हुए अभिलेख एवं उत्तर-पश्चिम भारत के खरोष्ट्री अभिलेख अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं | मध्य भारतीय आर्यबोली में अभिलिखित ये अभिलेख मध्य एशिया के निय स्थान से प्राप्त हुए हैं, इसलिये ये निय प्राकृत के नाम से जाने जाते हैं । ये शान-शान राज्य की राजदरबारी भाषा में लिखे हुए हैं । इनकी भाषा मूलतः उत्तरीपश्चिमी है । इनका समय ईसा की लगभग तीसरी शताब्दी कहा जाता है । " इनके अतिरिक्त अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत भी इसी युग की देन है । अश्वघोष की प्राकृत बोलचाल के अधिक निकट है । वस्तुतः अश्वघोष की भाषा, भास के नाटकों के कुछ प्राकृत अंश तथा भरतमुनि की नाट्यगीतियाँ संस्कृत के शास्त्रीय (classical) नाटकों से पूर्व की हैं । लोकनाट्य पहले आमतौर से प्राकृत में लिखे जाते थे । संस्कृत में लिखे गये नाटकों में भी पचास प्रतिशत के लगभग प्राकृत का समावेश है । इनमें भी अभिनय केबल ग्राम जनता की बोली में हावभावों द्वारा किया जाता था । इसलिए भरत मुनि ने प्राकृत की बोलियों का क्षेत्रीय भेदों के अनुसार विवरण दिया है । उनके समय में उत्तर में हिमालय की तलहटी से लेकर पंजाब तक और पश्चिम में सिन्ध से लेकर गुजरात तक प्राकृत प्रतिष्ठित थी । ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर जिस युग को संस्कृत की समृद्धि का काल कहते हैं, वह प्राकृतों के विकास का भी काल था । इन मध्यभारतीय बोलियों में ही देश का अधिकांश धार्मिक साहित्य लिखा गया । संस्कृत इस समय धार्मिक साहित्य और व्याकरण की भाषा के रूप में रूढ़ हो चुकी थी, जिससे उसका विकास रुक गया । 3 स्वयं महर्षि पाणिनि 'बहुलं छन्दसि' कहकर वैदिक भाषा में प्रयुक्त विभिन्न रूपों ( विभाषागत ) का विवरण प्रस्तुत कर रहे थे । उनके अतिरिक्त महर्षि यास्क और पतंजलि भी वैभाषिक प्रयोगों का स्वच्छन्दता से उल्लेख करते हुए दिखलाई पड़ते हैं । विकास की इस धारा से नव्य भारतीय प्रार्यभाषाओं का विकास हुआ । नव्य भारतीय प्रार्य भाषाओं तथा I Jain Education International 185 १. सुकुमार सेन : ए कम्पेरेटिव ग्रैमर ऑव मिडिल इण्डो-आर्यन, द्वि० सं०, १९६०, पृ० १३. २. ४. ज्यूल ब्लॉख : भारतीय आर्यभाषा, अनु० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, १९६३, पृ० १०. ३. डॉ० आइ० जे० एस० तारापोरवाला : संस्कृत सिन्टेक्स, दिल्ली, १९६७, पृ०१३. " चतुर्थ्यर्थे बहुलं छन्दसि' (अष्टाध्यायी २.३.६२), भाषायामुभयमन्वध्यायम् ( निरुक्त १ अ०, २ पा०, ४ खं०), प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् ( अष्टा० ७.२.८८ ), भाषायां सदवसश्रुवः ( अष्टा० ३.२.१०८), प्रत्यये भाषायां नित्यम् ( कात्यायन वार्तिके), नेति प्रतिषेधाथियो भाषायाम् (निरुक्त १ अ), सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे लोकतोऽर्थप्रयुक्ते शब्दप्रयोगे शास्त्रेण धर्मनियमः । ( महाभाष्य - पतंजलि). For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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