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________________ 173 प्राकृत तथा अपभ्रश का ऐतिहासिक विकास गुप्त-युग में राजदरबारों में प्राकृत नाटिकाओं, सट्टकों के अभिनय के साथ जब संस्कृत नाटकों का भी अभिनय किया जाने लगा, तब संस्कृत नाटकों में प्राकृत का समावेश अनिवार्य हो गया। क्योंकि सामान्य वर्ग के लोग प्राकृत ही बोलतेसमझते। इसके लिए वैयाकरणों को विशेष प्रयत्न करने पड़े। यथार्थ में उस युग के संस्कृत वैयाकरणों को संस्कृत भाषा को प्राकृत में ढालने के लिए विशेष नियम बनाने पड़े। इस कारण प्राकृत शब्दावली में तोड़-मरोड़ भी हुई और आगे चल कर वे प्राकृत-अपभ्रश कहलाई जो वास्तव में बोली थीं।' इन प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि जब तक संस्कृत या वैदिक भाषा लोक जीवन और लोक-बोलियों को आत्मसात् करतो रही, तव तक वराबर उस में विकास होता रहा; किन्तु जब वह शास्त्रीय नियमों में भलीभाँति आवद्ध हो गई, तभी उसका विकास रुक गया। इससे जहाँ वह वाणी 'अमर' हो गई, वहीं उसका प्रवाह अवरुद्ध हो गया और वह "मातभाषा" के नाम से अभिहित की गई। यथार्थ में संस्कृत को अमरत्व रूप महर्षि पाणिनि ने प्रदान किया। उनके पूर्व की संस्कृत भाषा के व्याकरणिक रूपों में अत्यन्त विविधता थी। डॉ० पुसालकर का कथन है कि भारतीय पुराणों की भाषाविषयक अनियमितताओं को देखते हुए यह लक्षित किया गया है कि जन बोलियों से प्रभावापन्न संस्कृत के ये पुराण आधे के लगभग प्राकृतत्व को लिये हुए हैं। इससे यही समझा जाता है कि मौलिक रूप में ये पुराण प्राकृत में लिखे गये थे, जिन्हें हठात् संस्कृत में अनुदित किया गया। प्राकृतिक प्रवृत्ति का प्रभाव वैदिक ग्रन्थों तक में प्राप्त होता है। परवर्ती काल में सहज रूप से प्राकृतों का प्रभाव धार्मिक ग्रन्थों, महाकाव्यों और पुराणों पर भी लक्षिा होता है। प्राचीनतम भाषा लिखित भाषा के रूप में संसार का प्राचीनतम प्रमाण ऋग्वेद है। यद्यपि प्राचीन पाठ-परम्परा के अनुवर्तन से वेदों के मूल रूप का रक्षण होता रहा है, किन्तु भाषा-वैज्ञानिक यह मानते हैं कि ऋग्वेद की रचना किसी एक समय में और एक व्यक्ति के द्वारा न हो कर विभिन्न युगों में संकलित हुई है। वैदिक रचनाए पुरोहित-साहित्य है। "ऋग्वेद रिपीटीशन्स" में ब्लूमफील्ड ने स्पष्ट १. विल्सन, ग्रेहम (सं०) : ए लिंग्विस्टिक्स रीडर, न्यूयार्क, १९६७ में प्रकाशित स्टेनली रुन्डले के प्रकाशित निबन्ध "लैंग्वेज एण्ड डायलेक्ट', पृ०८७ से उद्धृत. "In fact, the grammarians of the day developed special rules for turning Samskrt into Prākst, so that the real Prakrt tended to be lost to the written language and the literary Prakrt became a definite mutilation of Samskrt." (pp. 87). २. ए० डी० पुसालकर : वेयर द पुराणाज ओरिजनली इन प्राकृत, आचार्य ध्रुव स्मारक ग्रन्थ, भाग ३, गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद, पृ० १०३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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