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172 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
"प्राकृत" शब्द प्रकृति से निष्पन्न हुआ है। प्राकृत शब्द का मुख्य अर्थ स्वाभाविक है। प्राकृत लगभग तीन सहस्राब्दियों और उसके पूर्व की बोल-चाल की भाषा रही है। भाषा-विज्ञान में साहित्यिक भाषा को “भाषा" कहा जाता है। जिसमें कोई साहित्य-रचना नहीं की जाती, जो केवल मौखिक रूप से प्रचलित रहती है उसे "बोली" कहते हैं। परम्परागत रूप से भाषा और बोली दोनों ही अपने-अपने रूपों से प्रवर्तमान रहती हैं। भाषा हमें साहित्य से सीखने को मिलती है और बोली माँ-बाप तथा जन-समाज से। हमारे बोलने और लिखने की भाषा में प्रायः अन्तर रहता है। बोलने में हम असावधानी और शिथिलता भी बरत लेते हैं, किन्तु लिखने में संयत विचार और साधु भाषा के प्रयोग का ध्यान रखते हैं। साधु तथा संयत भाषा के पक्षपाती शिष्टजन, स्वाभाविक भाषा या वोली को "गवारू" या 'उजड्ड' लोगों की भाषा समझते चले आ रहे हैं। इसे वे अपशब्दों से भरित तथा अपभ्रष्ट भी मानते हैं। भाषाविद् स्टेनली रुडले का यह कथन उचित ही है कि बोली के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम फैला हुआ है। लोग समझते हैं कि वोलियाँ लोक-साहित्य के रूप में प्रचलित बनी हुई हैं, किन्तु वे असंगत रूप हैं और केवल अध्ययन की वस्तु हैं। अतएव अधिकतर लोगों की दृष्टि में बोली मानक भाषा (Standard language) का अतिक्रमण है। प्रत्येक देश की कोई न कोई मानक भाषा होती है। उस मानक भाषा के अपभ्रश को बोली समझा जाता है। कार्नवाल और स्काटलैण्ड के लोगों के विषय में कहा जाता है कि वे मानक अंग्रेजी को तोड़-मरोड़ कर बोलते हैं।' टकसाली, आदर्श या मानक भाषा सदा स्थिर नहीं रहती। युग-युगों में घटित होनेवाले परिवर्तनों के वीच भाषा का स्वरूप भी परिवर्तित होता रहता है। लगभग एक शताब्दी के पूर्व जो खड़ी बोली लोक-नाट्यों तथा स्वांगों के रूप में प्रचलित थी वह आज भाषा ही नहीं, राष्ट्रभाषा भी है। इसलिए आज के भाषा-रूप की रचना में पहले के भाषिक रूप से बहुत भिन्नता है । इससे यह भी स्पष्ट है कि आधुनिक युग को बोलियाँ सम्प्रति स्वीकृत मानक या आदर्श भाषा-रूप का अतिक्रमण नहीं है। बोलियों का भी अपना इतिहास है। वे कई शताब्दियों के अन्तराल में फैल कर अपना विकास करती हैं। बोलियों के विकास की यह एक प्रक्रिया है जो किसी एक देश में नहीं, वरन् संसार की सभी बोलियों के सम्बन्ध में घटित हुई है। यही प्रक्रिया संस्कृत के साथ भी घटित हुई, जो एक कृत्रिमपूर्ण साहित्यिक भाषा थी। प्राकृतिक वोलियों को प्राकृत कहा जाता था। यद्यपि वे संस्कृत-साहित्य से प्रभावापन्न रहीं, किन्तु उन्होंने अपने साहित्य का स्वयं निर्माण किया । वे संस्कृत का भ्रष्ट रूप नहीं थीं। हमारे जीवन की वास्तविकता सहज रूप में बोली के माध्यम से निःसृत होती है । अतएव आंचलिक वातावरण के चित्रण में क्षेत्रीय वोली का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। यही स्थिति संस्कृत-काल में प्राकृत की थी। भारतीय इतिहास के
१. द्रष्टव्य है, विल्सन, ग्रेहम (सं): ए लिंग्विस्टिक रीडर, १९६७, पृ० ८६. २. वही, पृ० ८७.
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