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प्राकृत तथा अपभ्रंश का ऐतिहासिक विकास
डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री प्राचीन भारतीय आर्यभाषाओं के विकास-क्रम में प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। ये भाषाएँ विभिन्न युगों में बोली तथा भाषाओं में होने वाले परिवर्तनों को संसूचक हैं। डॉ० चटर्जी ने ठीक ही कहा हैं कि "वैदिक" शब्द या 'संस्कृत', 'प्राकृत' और 'भाषा' का प्रयोग संक्षिप्त और सुविधा के लिए तथा भारतीय आर्यभाषाओं की तीन अवस्थाओं के लिए किया गया है, और 'प्राकृत' तथा 'भाषा' के मध्य में संक्रमणशील अवस्था जो कि प्राकृत या मभाआ को ही एक अंग थो, सुविधा की दृष्टि से 'अपभ्रंश' कही जाती है। 'प्राकृत' शब्द का अर्थ और उसको व्याप्ति :
डॉ० जार्ज ग्रियर्सन, वाकरनागल, रिचर्ड पिशेल और प्रो० एन्त्वान् मेय्ये प्रभृति भाषावैज्ञानिकों ने वैदिक युग की प्रादेशिक वोलियों के विकास से शिलालेखों की प्राकृत तथा साहित्यिक प्राकृतों का उद्भव एवं विकास माना है। वैदिक युग की प्राकृत वोलियों को प्राचीन या प्राथमिक प्राकृत (२,००० ई० पू०-५,०० ई० पू०) नाम दिया गया है। डॉ. ग्रियर्सन के शब्दों में अशोक (२५० ई० पू०) के शिलालेखों तथा महर्षि पतंजलि (१५० ई० पू०) के ग्रन्थों से यह ज्ञात होता है कि ई० पू० तीसरी शताब्दी में उत्तर भारत में आर्यों की विविध वोलियों से युक्त एक भाषा प्रचलित थो । जनसाधारण को नित्य व्यवहार की इस भाषा का क्रमागत विकास वस्तुत: वैदिक युग की बोलचाल की भाषा से हुआ था। इसके समानान्तर ही इन्हीं बोलियों में से एक बोली से ब्राह्मणों के प्रभाव द्वारा एक गौण-भाषा के रूप में लौकिक संस्कृत का विकास हुआ।२ श्री पीटर्सन ने अपने लेख में बताया है कि प्राकृत वह संस्कृत है जिसे यहाँ के आदिवासी लोग अशुद्ध उच्चारण के रूप में बोलते थे। किन्तु जार्ज ग्रियर्सन उनसे सहमत नहीं हैं। उनका स्पष्ट कथन है कि प्राकृत का अर्थ है-नैसगिक एवं अकृत्रिम भाषा। इसके विपरीत संस्कृत का अर्थ है-संस्कार की हुई तथा अकृत्रिम भाषा । संस्कृत से प्राकृत सदा से भिन्न रही है। प्राकृत बोल-चाल की भाषा थी। भाषा का स्वभाव आज भी प्राकृत है इसलिए उसके स्वभाव को प्रकृति कहते हैं। १. चटर्जी सुनीतिकुमार : द ओरिजन एण्ड डेवलपमेन्ट ऑव द बैंगाली लैंग्वेज,
कलकत्ता वि० वि०, १९२६, पृ० १७. २. ग्रियर्सन, सर जॉर्ज अब्राहम : भारत का भाषा-सर्वेक्षण, अनु०-डॉ. उदयनारायण
तिवारी, १९५९, पृ० २२४ से उद्धृत.
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