________________
174
VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
रूप से बताया है कि ऋग्वेद में लगभग एक चौथाई से भी अधिक पाद- पुनरावर्तन हुआ है । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल और दशम मण्डल की भाषा में भी अन्तर लक्षित होता है । ऐतिहासिक दृष्टि से ऋग्वेद की रचना एवं संकलना का समय १२०० ई० पू० - १००० ई० पू० के लगभग माना जाता है । इस काल से साहित्यिक परम्परा सतत एवं अविच्छिन्न रही है और भारतीय आर्यभाषा का क्रमिक विकास विभिन्न अवस्थाओं में विविध रूपों में समाहित हो कर विस्तृत हुआ है । ' टी० बरो के अनुसार ऋग्वेद १००० ई० पू० के लगभग और अवेस्ता ६०० ई० पू० के लगभग की रचनायें हैं । ईरानी भाषा की प्राचीन स्थिति का प्रतिनिधित्व अवेस्ता तथा प्राचीन फारसी साहित्य के द्वारा किया जाता है, और ये ही ग्रन्थ वैदिक संस्कृत की तुलना की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व के हैं । लरथुस्त्रीय धर्म के मतानुसार अवेस्ता उनके द्वारा सुरक्षित पवित्र लेखों का प्राचीन संग्रह है, और इसके आधार पर वह भाषा भी अवेस्ता ( भाषा) कहलाती है । यह कोरास्मिया प्रदेश में प्रचलित पूर्वी ईरानी विभाषा जान पड़ती है। भारतीय आर्य की पश्चिमी वोलियाँ कुछ विषयों में ईरानी से साम्य रखती थीं । प्रो० एन्त्वान् मेय्ये ने ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा का मूल सीमान्त प्रदेश की एक पश्चिमी बोली को ही निर्दिष्ट किया है । पश्चिम की इस बोली में 'ल' न हो कर केवल 'र' था । किन्तु संस्कृत और पालि में 'र' और 'ल' दोनों थे । तीसरी में 'र' न होकर केवल 'ल' ही था, जो सम्भवतः सुदूरपूर्व की बोली थी । इस पूर्वी बोली की पहुँच आर्यों के प्रसार तथा भाषा विषयक विकास के द्वितीय युग के पहले-पहल ही आधुनिक पूर्वी - प्रदेश और विहार के प्रदेशों तक हो गई थी । यही पूर्वी प्राकृत तथा उत्तरकालीन मागधी प्राकृत वनी । ३ इसमें 'र' न होकर केवल 'ल' था । वस्तुतः एक ही युग की ये तीन तरह की वोलियाँ थीं, जो परवर्ती काल में विभिन्न रूपों में परिवर्तित होती रहीं । आगे चलकर विभिन्न जातियों के सम्पर्क के कारण इनमें अनेक प्रकार के मिश्रण भी हुए । असीरी- बाबिलोनी से ग्रागत वैदिक भाषा में कई शब्द मिलते हैं । " जहाँ तक फिनो उग्री के साथ प्राचीन भारत-ईरानी के सम्पर्क का सम्वन्ध है, इस सम्बन्ध में अधिक प्रमाण उपलब्ध हैं तथा उनका विश्लेषण करना अधिक सरल है। भारत-ईरानी काल के पूर्व भी भारोपीय तथा फिनो उग्री में सम्पर्क होने के प्रमाण मिलते हैं । इन भाषाओं में शब्दों का आदानप्रदान दोनों दिशाओं में रहा होगा । "
१.
द्रष्टव्य है- बरो, टी : द संस्कृत लैंग्वेज, हिन्दी अनु०, पृ० ४३.
२. वहीं, पृ० ६.
३.
चटर्जी, डा० सुनीतिकुमार : भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि० सं० १९५७, पृ० ६३.
द्रष्टव्य है - चटर्जी सुनीति कुमार : भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, द्वि० सं० १९५७, पृ० ४१.
टी० बरो : द संस्कृत लेंग्वेज, हिन्दी अनुवाद, पृ० ३०.
४.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org