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________________ भगवती आराधना और उसका समय 169 ६. शिवार्य के साक्षात् गुरुनों में पूर्वोक्त तीन गुरुओं का ही नाम लिया जा सकता है। इसके साथ ही इसकी भी सम्भावना अधिक है कि शिवार्य ने प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूप में कुन्द-कुन्द के ग्रन्थों का अध्ययन किया हो। उन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही अनेक गाथाओं में चरितसार (१३ वीं गाथा), पवयणसार (१४, १८ वी गाथा में) आदि ग्रन्थों का पूर्ण सम्मान के साथ उल्लेख किया है और उन्हीं को अपनी कृति का आधार बनाया है : हम जानते हैं कि ये ग्रन्थ आचार्य कुन्द-कुन्द के थे। अतः यह कहा जा सकता है कि शिवार्य ने कुन्द-कुन्द जैसे महान व्यक्तित्व का किसी कारणवश उल्लेख भले ही नहीं किया हो पर उनके ग्रन्थों का उल्लेख स्पष्टतः अवश्य कर दिया है। सम्भव है, कुन्दकुन्द अपरनाम पद्मनन्दि, जिननंदी आदि आचार्यों के गुरु रहे हों और शिवार्य का साक्षात् सम्बन्ध न होने के कारण उनका नामोल्लेख न किया हो । रचनाकाल : भगवती अराधना के आन्तरिक प्रमाणों से यह कहा जा सकता है कि उसकी रचना आचार्य कुन्द-कुन्द के बाद और उमास्वामी के पूर्व हुई। भगवती अराधना की गाथा नं० ४६ में 'चेइय' (चैत्य) की भक्ति, पूजा, आदि का विधान किया गया है। इससे पता चलता है कि शिवार्य चैत्यवासी थे और चैत्यवासी सम्प्रदाय के साधु पाणितलभोजी थे। चैत्यवासियों के उल्लेख दिगम्बरश्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के साहित्य में उपलब्ध होते हैं । लिंगपाहुड के "लिगं घेत्तूण जिण वरिंदाणं", "उवहसइ ण सो समणो" आदि गाथानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि कुन्द-कुन्द के समय चैत्यवासी सम्प्रदाय का प्रभाव बढ़ चला था। चूंकि शिवार्य चैत्यवासी थे, इसलिए यह भी सम्भव है कि कुन्दकुन्द ने उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार न किया हो। कुन्दकुन्द के समय के संदर्भ में हम डॉ० उपाध्ये के विचार को अधिक सयुक्तिक स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार कुन्दकुन्द का समय ई० सन् का प्रारम्भ माना जाना चाहिए। १०. मथुरा के प्रथम शताब्दी ई० पू० के जैन शिलालेखों से स्पष्ट है कि दिगम्वर-श्वेताम्बर मतभेद उसके बाद ही स्पष्ट हुए हैं । कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में श्वेताम्बर-परम्परा पर कुछ आक्षेप भी किये हैं। दोनों परम्पराओं के सेतु रूप में यापनीयसंघ को उत्पन्नि हुई। सम्भव है कि शिवार्य यापनीयों के प्रधान आचार्य रहे हों। ११. भगवती आराधना का विषय और उसकी विवेचनशैली बहुत कुछ आवश्यक नियुक्ति, बृहत्कल्पभाष्य, दशवैकालिक, मूलाचार, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों से मिलती-जुलती है । संभव है, इन ग्रन्थों का उत्स एक रहा हो, जिनका आकलन उक्त गाथाओं के लेखकों ने आवश्यक परिवर्तनों के साथ कर लिया हो। भाषा आदि की दृष्टि से इनका बहुभाग प्राचीन और समकालीन प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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