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________________ सन्देश रासक की हिन्दी टीका पर कुछ टिप्पणियाँ 163 यहाँ पर 'चमक्कउ' का अर्थ अवचूरी में जूते से होनेवाला 'चमचा शब्द' किया गया है । यह संतोषप्रद नहीं है । अतः हिन्दो टीकाकारों ने इसे अस्वीकृत कर दिया है और इस शब्द का सम्बन्ध चमत्कृत से स्थापित कर इसका अर्थ 'विस्मयकारक अथवा आश्चर्यजनक' किया है। एक सम्भावना और दीखती है। यह वर्णविपर्यय की प्रक्रिया से 'चक्रमण' प्राकृतरूप चंकमण > चक्कमण से भी आया हुना हो सकता है । इस हालत में पूरी पंक्ति का अर्थ होगा, 'वह (नितम्ब भार को कष्टपूर्वक धारण करनेवाली) नायिका लीलापूर्वक धीरे-धीरे चली । वह शीघ्रता से (कभी) चल ही नहीं पाती है।। (६) सुन्नारह जिम मह हियउ पिय उक्किख करेइ । विरह हयासि दहेवि करि आसा जलि सिचेइ ।।१०८।। इन पंक्तियों के हिन्दी रूपान्तर में 'हियउ' को 'करेइ' क्रिया का कर्ता और 'पिय उक्किख' (प्रिय के प्रति उत्कंठा) को उसी क्रिया का कर्म माना गया है। अवचरी में भी 'हियउ' को ही कर्ता माना गया है। किन्तु 'पिय उक्किख' की व्याख्या की गई है-'प्रिय के प्रति उत्कंठा से' (नायिका पक्ष में) और लाभ (प्रिय) की लालसा से (स्वर्णकार पक्ष में)। यदि यहाँ 'प्रिय उक्किख' को कर्ता और 'मह हियउ' को कर्म माना जाय तो इन पंक्तियों का सौन्दर्य स्फुट हो जाता है। ऐसा मानने में कोई व्याकरण-सम्बन्धी व्यवधान नहीं दीखता है। इनसे सद्यः पूर्व की पत्तियों में नायिका ने कहाँ है कि विरहाग्नि से दग्ध और मिलनाशा जल से सिंचित वह न जीती है न मरती है केवल धूमायित हो रही है।' इसी को इन पंक्तियों में वह एक रूपक के द्वारा स्पष्ट कर रही है। प्रिय के प्रति उसकी उत्कंठा (पिय उक्किख) उसके हृदय के प्रति (मइ हियउ) स्वर्णकार-सा व्यवहार कर रही है (सुन्नारह जिम करेइ)। वह (प्रिय के प्रति उत्कंठा) उसके हृदय को विरहाग्नि में तपाकर फिर आशा जल में सिक्त कर देती है (विरह हुयासि दहेवि करि आसा जलि सिंचेइ)। स्वर्णकार द्रव्य को तपाकर उसे संकुचित अथवा विस्तृत करते हैं और फिर जल में डालकर उसे ठंढा कर लेते हैं ।। ___ अंत में यह सविनय निवेदन कर देना उचित है कि डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान् के द्वारा जिस टीका पर विचार किया जा चुका उसपर फिर से टिप्पणी करने की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि विद्या के क्षेत्र में जिज्ञासा को कभी रोकना नहीं चाहिए। सभी विचारित पंक्तियों की अवचरी एवं हिन्दी रूपान्तर में से सम्बन्धित अंश परिशिष्ट में उद्धृत कर दिए गए है। १. आसाजलि संसित्त विरह अन्हत्त जलंतिय, णहु जीवउँ णहु मरउँ पहिय अच्छउँ धुक्खत्तिय । (१०७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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