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________________ 162 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 व्यक्तियों के साथ ही प्रवेश करने पर वे मीठे छन्द क्यों सुने जाते हैं। वे तो यों भी सुने जाने चाहिये। यहाँ पर यदि 'नर' के स्थान पर 'नयरु' पढ़ा जाय' और 'सथिहि' का अर्थ सार्थों के द्वारा (सार्थः) किया जाय तो अर्थ में अच्छी संगति बैठती है और सौन्दर्य भी कुछ बढ़ जाता है । 'यदि विविध विचक्षण व्यापारियों के काफिले के द्वारा नगर में प्रवेश किया जाता है तो उन्हें मधुर और मनोहर प्राकृत के छन्द सुनने को मिलते हैं।' यहाँ 'विचक्षण' पद की सार्थकता है-छन्द का पूरा आनन्द तो विचक्षण ही ले सकते हैं। किन्तु विचक्षणों के साथ हो लेने भर से जड़ काव्य और छन्द का रसास्वाद कैसे कर सकते हैं ? (४) मयणवहु मिअणाहिण कस्सव पंकियउ, अन्नह भालु तुरक्कि तिलक आलंकियउ ।।४८।। यहाँ नीचे वाली पंक्ति का अर्थ किया गया गया है, 'किसी ने अपना भाल तिरछे तिलक से अलंकृत कर रखा है।' अर्थात् यहाँ 'तुरक्कि पद का अर्थ 'तिरछा' किया गया है। किन्तु अवचूरी में इसका अर्थ 'तीक्ष्ण' लिखा है। इस शब्द का प्रयोग पद संख्या (१६८) में भी हुआ है । पंक्ति निम्नलिखित है : तिलु भालयलि तुरक्कि तिलक्किव, अर्थ किया गया है, 'भालतल को चटकोले तिलक से तिलकित कर ।' यहाँ पर हिन्दी टोका में अवचूरी में दिए हुए 'तुरक्कि' 'तीक्ष्ण' अर्थ को अपनाया गया है । यह अर्थ पूर्व प्रसंग में भी चल सकता था। किन्तु वहाँ यह स्वीकृत नहीं किया गया। शायद टीकाकार ने वेश्याओं के प्रसंग में तिलक को तिरछा रखना ही अधिक समीचीन समझा-कथित पद (४८) में वेश्याओं का वर्णन है। 'तुरक्कि' का अर्थ विशेषण रूप में 'तुर्किस्तान का' भी हो सकता है। तव 'तुरक्कि तिलक' और 'तुरक्कि तिल' का भी, अर्थ होगा, उस द्रव्य विशेष का तिलक जो तुर्किस्तान से मँगाया गया है । सुगन्धित 'सिलारस' के लिए तुर्किस्तान प्राचोन काल से प्रसिद्ध है। सम्भव है तिलक के लिए भी तुर्किस्तान से मँगाया जानेवाला कोई सुगन्धित और चटकीला द्रव्य विशेष अपना वैशिष्ट्य रखता रहा हो। (५) रमणभारु गुरुवियडउ का कट्टहि धरइ, अइ मल्हिरउ चमक्क उ तुरिय उ णहु सरइ । १. यदि 'नरु' शब्द को 'नगर' का वाचक माना जाय तो पाठपरिवर्तन की आवश्यकता नहीं होगी। किन्तु ऐसा प्रयोग प्रचलित नहीं है। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में अवश्य एक स्थान पर 'नगर्याम्' का अर्थ में 'नरि' शब्द का प्रयोग हुआ है'कलिंगनरि खबीर-इसि-ताल-तडाग-पाडियो च बन्धापयति ।' किन्तु खारवेल के अभिलेख और संदेशरासक में बहुत काल का अन्तर है और इस एक ही प्रयोग के आधार पर 'नरु' को 'नयर' का संक्षिप्त रूप मान लेना समीचीन नहीं होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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