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सन्देशरासक की हिन्दो टोका' पर कुछ टिप्पणियाँ
रा०प्र० पोद्दार (१) तंतीवायं णिसुयं जइ किरि करपल्लेवेहिं अइमहुरं।
ता मद्दलक रडिरवं मा सुम्मउ रामरमणेसु ।।१०।।
इन पंक्तियों में 'रामरमणेसु' का अर्थ किया गया है, 'साधारण स्त्रियों के कोड़ा विनोद में'। किन्तु इस अर्थ के लिए कोई शब्दकोश का प्रमाण अथवा व्युत्पत्तिपरक कोई आधार नहीं है। प्रसंगानुकूल अनुमान पर ही यह आधारित जान पड़ता है। अवचूरी में इस पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है। इस शब्द का सम्बन्ध 'राम-रवण' से स्थापित किया जा सकता है। (रवण ८रव = ध्वनि करना।) अपभ्रंश में 'म' और 'व' की अदला-बदली प्रायः देखी जाती है। इस तरह अर्थ होगा, 'राम-राम की धुन करने में अर्थात् हरि कीर्तन प्रादि जैसे प्रसंग में'। (२) णयर णामु सामोरू सरोरुहदलनयणि,
णायरजणसंपुन हरिस ससिहरवयणि । धवलतुंगपायारिहि तिरिहि मंडियउ,
णहु दोसइ कुइ मुक्खु सयलु जणु पंडियउ ।।४२।।
इन पंक्तियों में ति उरिहि' का अर्थ किया गया है 'त्रिपुरों से'। किन्तु यहाँ पर 'त्रिपुर' से ठीक-ठीक क्या अभिप्राय है यह स्पष्ट नहीं किया गया है। सामान्यतः 'त्रिपुर' का अर्थ होता है मय निमित प्रसिद्ध पौराणिक प्रासाद जो आकाश, भूलोक और पाताल ज्यापी था और स्वर्ण, रजत एवं त्रपु से बनाया गया था। किन्तु इस प्रसंग में अनुमानतः कवि का अभिप्राय तीन मंजिलों वाली इमारतों से है। (३) विविहविअक्खण सत्थिहि जइ पवसीइ नरु, सुम्मइ छंदु मणोहरू पायउ महुरयरु ।
................. (४३) इन पंक्तियों का अर्थ किया गया है, 'यदि चतुर व्यक्तियों के साथ नगर में प्रवेश किया जाय तो मधुरतर मनोहर प्राकृत छंद सुनाई देते हैं।' यह अर्थ अवचूरी के अर्थ से मेल खाता है । यहाँ कवि का भाव यह ज्ञात होता है कि नगर में प्राकृत के छन्द आदि बहुधा गाए जाते हैं। अतः भ्रमणार्थी सहज ही इन मधुर छन्दों को सुन सकते हैं। यह वात अलवत्ते स्पष्ट नहीं हो पाती है कि चतुर
१. टीकाकार : डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा विश्वनाथ त्रिपाठी।
प्रकाशक : हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर (प्राइवेट) लिमिटेड, बम्बई-४.
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