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________________ 154 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 धतिमान, उत्तम और पाप-लज्जा से संयत होते हैं।"१ कबीर ने भी किसी साधु की जाति की अपेक्षा उसके ज्ञान को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। जाति की अपेक्षा आचरण और कर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन जैन आगमग्रंथ "उत्तराज्झयण" में मिलता है। इसके बारहवें अध्याय में चांडाल कुल में उत्पन्न परम तपस्वी हरिकेशबल की कथा आई है। आहार की गवेषणा के प्रसंग में एक बार वे एक यज्ञशाला में गए जहाँ ब्राह्मण समुदाय यज्ञकर्म में रत था। आहार देना तो दूर की बात है ब्राह्मणों ने हरिकेश का उनकी नीच जाति तथा रूक्ष और अर्धनग्न शरीर के कारण वड़ा अपमान किया। मुनि ने जब उन ब्राह्मणों को मर्म न जाननेवाला और वेद-वचनों का भार ढोनेवाला कहारे तब क्रोध में आकर उन्होंने मुनि को पीटा। अंत में यम के प्रहार और भद्रा के उपदेश से वे ब्राह्मण होश में आए और हरिकेश के चरणों पर गिरकर उन्होंने वास्तविक यज्ञ और स्नान का मर्म पूछा। मुनि का आचरण इस बात का प्रमाण था कि तप का ही महात्म्य दीख पड़ता है, जाति की विशेषता कुछ भी नहीं ।३ हरिकेश ने यज्ञ और स्नान से बाह्यशुद्धि की खोज करनेवाले ब्राह्मणों की निंदा की और बताया कि कुश-डाभ, यज्ञस्तंभ, तृण, काष्ठ तथा अग्नि को ग्रहण कर प्रातः और संध्या जल का स्पर्श करने से पाप का संचय होता है।४ सच्चा मनि इन्द्रियों का दमनकर पडजीवनिकाय की हिंसा से विरत रहता है, असत्य और अदत्तादान का सेवन नहीं करता है तथा स्त्री, मान, माया, क्रोध और लोभ को त्याग देता है। पाँच संवरों से युक्त, आश्रवों का निरोध करनेवाला तथा परीषहों को सहते हुए शरीर पर से ममत्व हटा देनेवाला व्यक्ति महान् यज्ञ का अनुष्ठान करता है। ब्राह्मण के पूछने पर हरिकेश मुनि ने वास्तविक यज्ञ और उसके उपकरणों का रहस्य बतलाते हुए कहा कि तप अग्नि है, जीव १. मा जाति पुच्छ चरणं च पुच्छ, कट्ठा हवे जायति जातवेदो । नीचा कुलीनोपि मुनी धितीमा, आजानियो होति हिरीनि सेधो । -सुत्तनिपात-सुन्दरिक भारद्वाज सुत्त-पृ०-९२. २. तुब्भेत्थ भी भारहरा गिराणं, अटुंण याणाह अहिज्जवेए । उच्चवयाइं गुणि णो चरंति, ताई तु खित्ताई सुपेसलाई ।। - उत्तराज्झयण-१५-१०-१४३. ३. सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, ण दीसई जाइ विसेस कोइ। सोवाग पुत्तं हरिएस, जस्सेरिसा इड्डि महाणुभागा ।। -वही-३७-पृ०-१५१. ४. कुसं च जूवं तण कट्ठ मग्गिं, सायं च पायं उदयं फुसंता। पाणाइ भूयाइ विहेडयंत, भुज्जो विभंदा पगरेह पावं ॥ -वही-३९--पृ०-१५२. ५. सुसंवुडो पंचहिं संवरेहि, इह जीवियं अणवकंखमाणो । वोसट्ठकाओ सुइ चत्त देहो, महाजयं जयइ जण्ण सिटुं ॥ ---उत्तराज्झयण-४२-पृ०-१५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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