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________________ सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत 155 अग्नि स्थान है, मन, वचन, काया के शुभ व्यापार कुड़छी हैं, अष्टकर्म उस अग्नि को उद्दीप्त करनेवाली लकड़ी है तथा संयम पाप शमन के लिए शांतिपाठ है । सच्चा ऋषि सम्यक् चारित्र रूप हवन से तप और अग्नि को प्रसन्न करता है । धर्मरूप जलाशय में ब्रह्मचर्यरूप शांतितीर्थ है । कर्ममल को दूर करनेवाला यही श्रेष्ठ, महान् और मोक्षदायी तीर्थस्थान है ।" इस प्रकार सिद्ध साहित्य में निहित बाह्याडंबर और वाह्याचार की आलोचना की प्रवृत्ति पालि त्रिपिटक और जैन आगम में स्पष्टतया दीख पड़ती है । बुद्ध ने हर प्रकार के विधि-विधान और कर्मकाण्ड को हेय माना था, पर हम जानते हैं कि आगे चलकर वौद्ध धर्म में नियम, आचरण, विनय, उपवास, भिक्षु जीवन आदि के संबंध में नियमों और उपनियमों का जाल विछ गया । विनयपिटक - विशेषकर "पातिमोक्ख सुत्त" इसका ज्वलंत प्रमाण है । तंत्रयान में आकर इस प्रवृत्ति का चरम विकास दीख पड़ता है जहाँ बौद्ध धर्म का वास्तविक और निश्छल रूप छिप-सा गया है । तंत्रयान में विधि-विधान और कर्मकांड ही प्रधान हो गये । अब भिक्षुओं में अनुशासन, स्नान, उपवास तथा नियमों की कठोरता का कोई महत्त्व नहीं रह गया । इनकी अपेक्षा पंचेन्द्रियों के सुखों का उपभोग करते हुए सिद्धि प्राप्त करने को अधिक श्रेयस्कर बताया गया है । शरीर को कष्ट देना अब भिक्षुओं को अभीष्ट न था । वज्रयान में तो प्रज्ञा ( स्त्री सहकर्मी ) या महामुद्रा के साथ खुलकर रमण करते हुए और योग का अभ्यास करते हुए मोक्ष पाने का उपदेश दिया गया है । कठिन साधना और व्रत से मनुष्य केवल दुखी होता है, शरीर सूखता है और चेहरा विकृत हो जाता है । कष्ट सहने और शरीर को पीड़ित करने से कभी मुक्त नहीं हो सकता । ३ साधक को योग का प्राय लेते हुए वोधि प्राप्त करना चाहिए । आर्यदेव ने स्पष्ट रूप से कहा है कि गंगा में स्नान करने से कुछ होने को नहीं है । यदि गंगा के जल में पवित्र करने और पाप धोने की शक्ति होती तो कुत्ते का शरीर भी पवित्र हो जाता और ये भी मुक्ति के अधिकारी होते और फिर मछुआ तो बराबर गंगा के जल पर ही रहता है । वह गंगा में गोता लगाता १. तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मेहा संजम जोग संती, होमं हुणामि इसिण पसत्यं ॥ धम्मे हर बंभे संते तित्थे, अणाविले अत्तपसण्णलेसे ॥ सिहाओ विमल विसुद्धो, सुसीइओ पजहामि दोसं ॥ एवं सिणाणं कुसलेहि दिट्ठ, महासिणाणं इसिणं पत्थं । सहाय विमला विसुद्धा महारिसी उत्तमं ठाणं पत्त ॥ - वही - ४४, ४६-४७ – पृ० – १५४-५५. औब्सक्योर रेलिजस कल्ट्स - डाँ० शशिभूषणदास गुप्त - पृ० - ७५ - श्रीगुह्य २. ३. ४. समाज और अद्वयसिद्धि से दिए गए उद्धरण । वही - पृ० - ७५ - वज्रडाक तंत्र से दिया गया उद्धरण । वही — पृ० - ७६ पंचक्रम से दिया गया उद्धरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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