________________
144 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 वस्तुतः कर्मकांड और बलि का परिणाम देवता की इच्छा पर निर्भर नहीं करता था। देवता की इच्छा अपने आप काम नहीं कर सकती थी। इसके लिए विविधविधानों की सही पद्धति को अपनाना आवश्यक था। किन्तु संहिता और ब्राह्मण के युग से चलकर जव हम प्रारण्यक और उपनिषद् के युग में पहुँचते हैं तो धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों में एक बड़ा परिवर्तन दीख पड़ता है।' यद्यपि संहिता और ब्राह्मणों में एकेश्वरवाद की झलक मिलने लगी थी । तथापि उनके मंत्रों और यान्त्रिक क्रिया-कलापों में सर्वप्रभुतासंपन्न ब्रह्म का दर्शन कहीं नहीं होता। कुछ ब्राह्मण ग्रन्थों में छिटफुट रूप में ब्रह्मा की जो कल्पना मि .ती है उसे ठोस आधार आरण्यक और उपनिषद में ही मिला। इनमें जब ब्रह्मा--एक सर्वशक्तिमान सत्ता की स्थापना हो गई तब यज्ञ और कर्मकांड धर्म के प्रधान अंग और लक्ष्य नहीं रह गए। जिज्ञासुओं का मुख्य उद्देश्य स्वप्राप्ति या ब्रह्मप्राप्ति हो गया तथा यज्ञ और कर्मकांड उस सिद्धि के साधन मात्र बनकर रह गए। यही कारण है कि इस युग में यज्ञ और कर्मकांड का स्थान साधना और ध्यान ने ले लिया। इतना ही नहीं याज्ञिक क्रिया-कलापों को उनके अभिधार्थ में न लेकर अब उनका दार्शनिक अर्थ लगाया जाने लगा। संहिता और ब्राह्मण के युग में यज्ञ, पूजा-अर्चना और कर्मकांडों की विधि के सूक्ष्माति सूक्ष्म भेद पर भी ध्यान दिया जाता था और किसी भी नियम या उपनियम का उल्लंघन घोर अपराध माना जाता था। कर्मकांडों को ठीक उसी अर्थ में ग्रहण किया जाता था। लेकिन आरण्यक और उपनिषद के युग ने मानो एक नवीन युग की नींव रखी। अव उन याज्ञिक क्रिया-कलापों; पूजा-अर्चना और बलि की जगह-जगह दार्शनिक और आध्यात्मिक व्याख्या की जाने लगी। इसका वड़ा सुन्दर प्रमाण बृहदारण्यक उपनिषद् में मिलता है। संहिता और ब्राह्मण के युग में पशुबलि की बड़ी धूम थी। इन बलिदानों में धोड़ों की भी वलि दी जाती थी। संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में इन बलिदानों को इनके शाब्दिक अर्थ में ही ग्रहण किया जाता था। पर बृहदारण्यक उपनिषद् में अश्व बलि के अश्व की एक नई व्याख्या मिलती है जहाँ कहा गया है कि प्रभात ही उस अश्व का सिर है; सूर्य उसकी आँखें; वायु सांस; स्वर्ग पीठ; स्वर्ग और पृथ्वी के वीच का स्थान उसका पेट; दिशाएँ उसके दोनों भाग; ऋतुएँ शारीरिक अवयव; सितारें हड्डियाँ ; तथा आकाश उसका मांस । साथ ही यहाँ यह भी कहा गया है कि इस अश्व की साधना करने और इसके वास्तविक स्वरूप को जान लेने पर ही अश्व बलि का सही मर्म जाना जा सकता है।२ उपनिषद् के युग में ही प्रसिद्ध ऋषि याज्ञवलक्य की पत्नी मैत्रेयी ने कहा था कि मुझे उन बातों से कोई मतलब नहीं जो मुझे अमर न वनावें ।३ उपनिषदों के अध्ययन से पता चलता है कि उस युग में लोग न तो आध्यात्मिक सु ! और समृद्धि चाहते थे और न स्वर्ग के सुखों
२. वही-पृ०-६२ १. औब्बसक्योर रेलिजस कल्ट्स-डॉ० शशिभूषणदास गुप्त --- पृ०-६२ की पाद
टिप्पणी में उद्धृत । २. येनाहं नामृतस्यां तेनाहं किम् कुर्याम् ।-बृहदारण्यक–२/४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org