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सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत
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का उपयोग करने को ही लालायित थे । वे आत्म- रहस्य को जानने के लिए लालायित रहते थे क्योंकि यही ब्रह्म का स्वरूप है । यह कहा गया है कि जो आत्म-रहस्य या ब्रह्म के स्वरूप को जान लेते हैं तथा सत्य का अन्वेषण करते हैं उन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है । ब्रह्मलोक में जानेवाला वहां से कभी लौटता नहीं । इसके विपरीत जो यज्ञ, बलि, दान और तपस्या आदि का अवलंबन लेते हैं वे भिन्न लोकों में भ्रमण करते रहते हैं तथा जन्म-मरण के रूप में पड़कर निरंतर कष्ट भोगते हैं । अपने ज्ञान और अहंकार में फुले हुए ऐसे मनुष्य अंधे के द्वारा पथ प्रदर्शित अंधे की भाँति घूमते रहते हैं ।" वलि देने या वेदों को सुनने या उनको रट लेने से कोई ब्रह्म को या सार्वभौमिक सत्य को नहीं प्राप्त कर सकता है । हृदय को पवित्र रखकर तथा अज्ञान के आवरण को हटा देने पर ही इस लक्ष्य तक आदमी पहुँच सकता है | उपनिषदों में अध्ययन, रटना, वहस, वलि, क्रिया-कलाप तथा देवपूजन आदि की निन्दा की गई है । वस्तुतः उनमें हृदय की पवित्रता पर बल दिया गया है । पवित्र और दर्पण की भाँति स्वच्छ तथा पारदर्शी हृदय में सार्वभौमिक सत्य अपने सुन्दर रूप में प्रतिभासित होता है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि उपनिषद् में धर्म के आंतरिक स्वरूप पर बल दिया गया है । २ संहिता और ब्राह्मण से इसकी तुलना करने पर यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है ।
उपनिषदोत्तर काल में धर्म के इस आंतरिक स्वरूप का विकास हुआ । भारत के प्राचीन महाकाव्यों में यही प्रवृत्ति लक्षित होती है । "महाभारत" में हमें इस बात का पक्का प्रमाण मिलता है कि वास्तविक धर्म और उसके तत्त्वों की शिक्षा निम्न जाति के लोगों को मिलती थी । अनुशासन पर्व में भीष्म ने युधिष्ठर को पवित्रता और शुद्धि का मर्म वतलाया । शरीर को केवल पानी से भिगो लेना ही स्नान नहीं कहलाता । सच्चा स्नान तो उसी ने किया जिसने मन- इन्द्रिय के संयम रूपी जल में गोता लगाया है । वही बाहर और भीतर से भी पवित्र माना गया है । साथ ही भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को यह भी बताया कि शुद्धि चार प्रकार की मानी गई है : - प्राचारशुद्धि; मनः शुद्धि; तीर्थशुद्धि और ज्ञानशुद्धि । इनमें ज्ञान से प्राप्त होनेवाली शुद्धि ही सबसे श्रेष्ठ मानी गई है । 3 जल से अपने शरीर को धोनेवाले व्यक्ति को कभी पवित्र नहीं माना जा सकता । जिसने अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण कर रखा है उसी का अन्तर और बाह्य पुनीत और स्वच्छ माना जा सकता है । पवित्र हृदय के झील में ब्रह्मज्ञान का अति स्वच्छ और पवित्र जल लहरा रहा है । जिसने इस जल में स्नान किया वह पवित्र तो है ही साथ ही ज्ञानी उसे सच्चा तीर्थयात्री मानते हैं ।
१. मुंडकोपनिषद् - संघ - २, श्लोक – ७-८; – पृ० – ३१-३२.
२. औब्सक्योर रेलिजस कल्ट्स - डॉ० शशिभूषणदास गुप्त - पृ० -६३.
३. महाभारत - अनुशासन पर्व का दानपर्व - श्लोक - ९,१२, पृ० ५८३९. १०
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