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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
गुरु
के बिना ये वनचर और चोरों के पिंड में पड़ जाते हैं । किन्तु इसके लिए गुरु भी योग्य होना चाहिए । सच्चा गुरु उनके विचार में वही है जिसमें संयम, शौच और तप है क्योंकि दाह, छेद और कशघात के योग्य ही उत्तम कंचन होता है । सरहपा आदि वज्रयानी सिद्धों ने भी गुरु के महत्त्व को स्वीकार किया है । सह का कहना है कि जिसने गुरु के वचनरूपी अमृत को न पिया वह शास्त्रों के मरुस्थल में प्यासा ही मर गया । ३ तिलोपा कहते हैं कि आवागमन के जिस सत्य को कोई नहीं जानता वह गुरु के उपदेश से हृदय में समा जाता है अर्थात् गुरु के उपदेश से साधक उसे जान सकता है । " सरह का तो स्पष्ट विचार है कि यदि गुरु बतला दे तो मनुष्य सब कुछ जान सकता है। स्वयं अपनी वाणी से मोक्ष नहीं पाया जा सकता । " कवीर आदि संत भी गुरु के महत्त्व से परिचित थे और वे भी इस परम्परा का पालन करते दीख पड़ते हैं । कवीर गुरु का गुण गाते-गाते अघाते नहीं हैं । शिष्य यदि कपड़ा है तो गुरु वह धोबी है जो शिष्यरूपी वस्त्र को ध्यान की शिला पर धोकर इतना साफ कर देता है कि उसमें से "अपार जोति" निकलने लगती है । शिष्य वह कुंभ है जो गुरुरूपी कुम्हार के हाथों तैयार हुआ है । एक कुशल कुम्हार की भाँति गुरु उपदेशों की चोट दे देकर उसकी बुराई को दूर कर देता है । " तभी तो जो विधाता नहीं कर सकता उसे गुरु करके दिखा देता है ।" यही कारण है कि कबीर की दृष्टि में गोविन्द से श्रेष्ठ गुरु ही है क्योंकि गुरु ही गोविन्द तक पहुँचाने का उपाय साधक को बतलाता है । " भला उस गुरु की वलिहारी क्यों न हो जिसने साधक को मनुष्य से देवता बना दिया । " तुलसीदास जब कहते हैं कि “विन गुरु होहिं कि ग्यान ११ तो गुरु के प्रति यही आस्था उनकी इस उक्ति में ध्वनित होती है ।
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लोकोक्तियों और सूक्तियों के क्षेत्र में भी विचारों की यही समानता जैनाचार्यों, सिद्धों और संतों में पाई जाती है । एक साधारण कहावत है कि जो जैसा करता है वह वैसा फल पाता है । नीम का पौधा लगाने से नीम ही फलेगा, आम नहीं । आचार्य देवसेन कहते हैं कि मनुष्य पाप करता है और
१.
२. वही - ७ पृ० ५.
३. दोहाकोश - सं० - राहुल सांकृत्यायन -४४ - पृ० १२.
४. दोहाकोश - सं० डॉ० बागची ३१ - पृ० ४.
५. दोहाकोश - सं० - राहुल सांकृत्यायन - ७०, पृ० १६.
६. कबीरवचनावली - ३०६ - पृ० १२०
सावयधम्म दोहा - ८ – पृ० ५.
७.
वही - ३०७ - पृ० - १२० ८. वही - ३१२ – पृ० - १२० ९. वही - ३०० पृ० - १९९
१०. वही -- ३०१ – पृ० - १९९
११. रामचरितमानस -उत्तरकांड - सोरठा - ८९ - १०-९५०
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