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________________ सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत 141 दुहरा अर्थ रखती हैं। वस्तुतः लौकिक प्रेमकाव्य के माध्यम से उन्होंने अलौकिक प्रेम का प्रदर्शन किया है। ऊपर से देखने पर उनके काव्य लौकिक प्रेमकाव्य हैं जहाँ प्रेम और विरह की धाराएँ हिलोरें ले रही हैं किन्तु वस्तुतः उनमें आत्मा और परमात्मा के मिलन और विद्रोह की कहानी अंकित है। जायसी के "पदमावत" में चित्तौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहल की राजकुमारी पद्मावती के उद्दाम प्रेम और विरह की गाथा गाई गई है जहाँ हिरामन तोता माध्यम का काम करता है और नागमतो एक आदर्श भारतीय गृहणी के रूप में उपस्थित होती है। इस महाकाव्य में महाकाव्य के सभी गुण, सर्गवद्धता, प्रकृति और दृश्यों का वर्णन; चरित्र-चित्रण आदि वर्तमान हैं। किन्तु काव्य के अंत में जायसी ने जो कुंजी दी है उससे भ्रम का निवारण हो जाता है। जायसी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राजा रत्नसेन आत्मा है, पद्मावती परमात्मा, तोता दूत, बादशाह अलाउद्दीन माया और रानी नागमती दुनिया-धंधा तथा राघव शैतान । चौदहो भुवन तो मनुष्य को इसो शरीर के भीतर हैं। चित्तौड़ तन है और सिंहल उसमें बसने वाला हृदय ।' कुतवन ने "मृगावती" में "चंद्रनगर के राजा-गणपति देव के राजकुमार और कंचन नगर के राजा-रूप मुरार की कन्या मृगावती के प्रेम की कथा" लिखी है। इतना ही नहीं, जायसी ने अपने पूर्व की लिखी प्रेम कहानियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हए प्रेमियों का दृष्टान्त दिया है ।३ इस प्रकार हमने देखा कि देह और आत्मा के बीच प्रेमी और प्रेयसो के जिस भाव की कल्पना मुनि रामसिंह ने की उस भाव की परम्परा वज्रयानी सिद्धों और कबीर, जायसी आदि संतों में अवाध गति से चलती रही। हाँ, यह सही है कि संत साहित्य में आकर उस परम्परा का पूर्ण विकास हुआ। गुरु के महत्व को प्रत्येक साहित्य में स्वीकार किया गया है। विशेषकर संतों और विचारकों ने तो गुरु को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है क्योंकि विना गुरु के ज्ञान हो ही नहीं सकता। जैनाचार्य मुनि देवसेन स्वयं एक संत साधक थे अतः उन्होंने भी गुरु के महत्त्व को भली भाँति पहचाना था। उनके विचार में गुरु के द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलकर मनुष्य शिवपुर को जाते हैं । मैं एहि अरथ पंडितन्ह बूझ। कहा कि हम्ह किछु और न सूझ ।। चौदह भुवन जो तर उपराहीं। ते सब मानुष के घर माहीं ॥ तन चितउर, मनराजा कीन्हा । हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा । गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा ? ॥ नागमती यह दुनिया-धंधा । बाँचा सोइ न एहि चित बंधा ॥ राघव दूत सोई सैतानू । माया अलाउदीन सुलतानू ॥ प्रेम-कथा एहि भांति विचारहु । बूझि लेहु जौ बूझै पारहु । -पदमावत- पृ०-३४१ २. राजकुंवर कंचनपुर गएऊ । मिरगावती कहँ जीगी भयऊ ॥ -वही-भूमिका-पृ०-४. ३. -वही- पृ०-४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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